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________________ ! नीति वाक्यामृतम् पौरुषादेव सिद्धिचेत् पौरुषं वै कथम् । पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषम् ||89 ॥ अबुद्धि पूर्वापेक्षायामिष्ट निष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्व व्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ।।91॥ (माप्तमीमांसा । अर्थ :- जो जन अनुकूल व प्रतिकूल भाग्य द्वारा ही इष्ट एवं अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि मानते हैं, उनके यहां उस समय उद्योग-पुरुषार्थ नगण्य गौण है, तब नीति न्यायपूर्ण पुरुषार्थ द्वारा अनुकूल भाग्य और अन्याय युक्त पुरुषार्थ द्वारा प्रतिकूल भाग्य का सम्पादन नहीं हो सकता । इसी प्रकार भाग्य की परम्परा अक्षुण्ण चालू रहने से सांसारिक व्याधियों के कारण कर्मों का नैतिक पुरुषार्थ द्वारा नाश न होने से मुक्ति श्री की भी प्राप्ति नहीं हो सकेगी। एवं लौकिक - कृषि - व्यापारादि व धार्मिक दान, शील, संयमादि कार्यों की सिद्धि के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ व्यर्थ हो जायेगा । इसी भाँति जो जन पुरुषार्थ से ही कार्यसिद्धि मानते हैं, उनके यहाँ दैव प्रामाण्य से पुरुषार्थ निष्फल नहीं होना चाहिए और समस्त प्राणियों का पुरुषार्थ सफल होना चाहिए । अतः अर्थ सिद्धि में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ह्री की उपयोगिता है । एक से कार्य सिद्धि नहीं होती । साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिस समय मनुष्यों को इष्ट (सुखादि) अनिष्ट (दुःखादि) पदार्थ बिना पुरुषार्थ के उद्योग बिना अचानक (सहसा ) प्राप्त होते हैं वहां उनकी अनुकूलता व प्रतिकूलता का कारण भाग्य ही समझना चाहिए । यहाँ पुरुषार्थ गौण है । इसी प्रकार पुरुषार्थ के माध्यम से इष्टानिष्ट सामग्री का सम्पादन होता है तो वहाँ पुरुषार्थ की मुख्यता और भाग्य देव को गौण समझना चाहिए ।। इस प्रकार जीवन में पुरुषार्थ और भाग्य दोनों ही की उपयोगिता है ।। गुरु ने भी कहा है : यथा नैकेन हस्तेन ताला संजायते नृणाम् । तथा न जायते सिद्धिरेकेनैव च कर्मणा ॥11॥ अर्थ :- जिस प्रकार एक हाथ से मनुष्य ताली बजाने में समर्थ नहीं हो सकता, उसी प्रकार एक ही पुरुषार्थ व दैववशात् कार्य सिद्धि नहीं होती है ।। अन्य किसी भी कार्य के विषय में सोचने-विचारने वाले व्यक्ति को बिना विचारे अन्य ही कार्य की अचानक सिद्धि या प्राप्ति हो जाय तो यह इष्ट या अनिष्ट सिद्धि भाग्याधीन समझना चाहिए 117 || शुक्र ने भी कहा है :अन्यच्चिन्तयामानस्य यदन्यदपि जायते 1 शुभं वा यदि वा पापं ज्ञेयं दैवकृतं च तत् ॥1 ॥ विवेकी मनुष्य को भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए । अपने लौकिक कृषि व्यापारादि तथा आध्यात्मिकधार्मिक कार्यों - दान, पूजा, स्वाध्यायादि में प्रमाद करना योग्य नहीं है । यथा शक्ति पुरुषार्थ प्रयत्न करना ही चाहिए। 527
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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