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मीति वाक्यामृतम्
उम्र-जीवन ( औषधयोः) दवा (इव) समान (दैवपुरुषकारयोः) भाग्य और पुरुषार्थ का ( परस्पर-संयोगः ) आपस का सम्बन्ध (समीहितम्) इच्छित (अर्थम्) प्रयोजन को (साधयति ) सिद्ध करता है 114
विशेषार्थ :- शम-कर्मों के फलभोगने में कुशलता उत्पन्न करने वाला गुण और व्यायाम अर्थात् नैतिक पुरुषार्थकार्य की प्राप्ति और उसमें सफलता प्राप्त कराते हैं । सारांश यह है कि शिष्ट-सज्जन पुरुष लौकिक एवं धार्मिक कार्यों में तभी सफल हो सकते हैं जब वह पुण्य के फलोपभोग- इष्ट वस्तु को प्राप्ति में कुशल हो, गर्व - अहंकार रहित और पापफलोपभोग अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति में धीर वीर सहनशील हो ॥1 ॥
पुण्य पाप कर्मों के फल इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं के संयोग के समय समता रखने वाला गुण शम कहलाता है । सम्पत्ति में अहंकार नहीं होना और विपत्ति में व्याकुल नहीं होना शम गुण का फल है । शम एवं कार्यारम्भ किये जाने वाला उद्योग "व्यायाम" कहा जाता है ॥2 ॥
प्राणी शुभ या अशुभ कुछ न कुछ कर्म करता ही है। पूर्व भवों में संचित यह शुभाशुभ कर्म ही 'दैव' या 'भाग्य' कहलाता है | 13 || व्यास ने भी कहा है :
शेन यत्र कुतं पूर्वं दानमध्ययनं तपः 1 तेनैवाभ्यासयोगेन तच्चैवाभ्यस्यते पुनः ॥1॥
आज का पुरुषार्थ ही आगे का भाग्य बनता है । यही आगे-आगे अभ्यास बनकर सुख-दुःख का कारण हो जाता है ।।1 ॥
अहिंसा, सत्यादि न्यायपूर्ण कार्यों के सम्पादन करने तथा दुराचारादि कुकर्मों के करने में होने वाले उद्योग को "पुरुषार्थ" कहते हैं । परन्तु श्रेयस् इच्छुक, कल्याण चाहने वाले सत्पुरुषों को सदैव नीतिपूर्ण शुभ - कल्याणप्रद कार्यों में ही प्रयत्नशील रहना चाहिए 114 || गर्ग विद्वान ने भी कहा है :
नयो वाप्यनयोवापि पौरुषेण प्रजायते तस्मान्नयः प्रकर्त्तव्यो नानयश्च विपश्चिता
1
॥11॥
यही अर्थ है ।
भाग्य और पुरुषार्थ दोनों ही कार्य सिद्धि या प्रयोजनसिद्धि में समान रूप से सहायक होते हैं । कहीं भाग्य का प्राध्यान्य होता है तो पुरुषार्थ गौण हो जाता है और पुरुषार्थ की प्रधानता में भाग्य गौण पड़ जाता है । सारांश यह है कि लोक में पुरुषों को अनुकूल भाग्य और नीति-न्यायपूर्ण पुरुषार्थ से इष्ट कार्यों की सिद्धि होती है, और प्रतिकूल से अनिष्ट होता है । मात्र पुरुषार्थ व भाग्य से नहीं होती ॥15 ॥ स्वामी समन्त भद्राचार्य ने पुरुषार्थ व भाग्य की विशद विवेचना की है :
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दैवादेवार्थसिद्धिश् चेद्दैवं पौरुषतः कथम् 1 दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥88॥