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________________ नीति वाक्यामृतम् वल्लभदेव ने भी कहा है : उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी देवेन देयमिति का पुरुषावदन्ति । दैवं निहत्य कुरुपौरुषमात्मशक्त्या, यले कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः॥ उद्योगी-पुरुषार्थी सिंह पुरुष अपने कठोर परिश्रम से लक्ष्मी प्राप्त करते हैं । कायर भाग्य भरोसे बैठे रहते हैं । अतः दैवाधीन न रहकर यथायोग्य पुरुषार्थ करने में दत्तचित्त होना चाहिए 16 ॥ मनुष्य जो कुछ भी बुद्धिपूर्वक सम्पन्न किये हुए कार्यों को पुरुषार्थ के आधीन कहा है । मनुष्य बुद्धिपूर्वक सुखदायक पदार्थों की प्राप्ति व कष्टदायक पदार्थों से निवृत्ति करता है वह उसके नैतिक पुरुषार्थ पर निर्भर है ।8। शुक्र विद्वान ने भी कहा है : बुद्धिपूर्वं तु यत्कर्म कि यतेऽत्रशुभाशुभम् । नरायत्तं च तज्ञेयं सिद्धं वासिद्धमेव च ॥8॥ भाग्य की अनुकूलता रहने पर भी यदि मनुष्य कार्य करने का उद्योग न करे । निरुत्साही (आलसी) बना बैठा रहे तो उसके कार्य की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती । समझना चाहिए उसका हित-कल्याण अभी दूर है। सारांश यह है कि विवेक-कर्मठ मनुष्य को भाग्याधीन बन कर चुप नहीं बैठना चाहिए अपितु सदैव लौकिक व धार्मिक कार्यों में पुरुषार्थ करते रहना चाहिए । इसी में उसका कल्याण है अन्यथा नहीं 19॥ वल्लभदेव ने भी उद्योग द्वारा कार्य सिद्धि लिखी है :- . उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः । अर्थात् उद्यमद्वारा ही कार्य सिद्ध होते हैं मन में चिन्तवन मात्र से नहीं । क्योंकि सिंह पशुओं में बलिष्ठतम है तो भी निद्रावस्था में उसके मुख में आकर पशुगण स्वयं नहीं घुसते । उसे पुरुषार्थ-प्रयत्न करना ही पड़ता है In | यद्यपि भाग्यवशात् किसी महानुभाव को अन्न प्राप्त हो भी जाय तो भी क्या बिना हस्त-पाद चलाये स्वयं वह मुख में प्रविष्ट होगा? नहीं हो सकता । इसी प्रकार भाग्यभरोसे बैठे रहने मात्र से मनुष्य को कार्य की सफलता नहीं मिल सकती । अपितु पुरुषार्थ से ही सफलता प्राप्त होती है ।।10 भागुरि ने भी कहा है : प्राप्तं दैव वशादनन्नं क्षुधार्तस्यापि चेच्छुभम् । सावन्न प्रविशेद् वको यावत्प्रेषति नोत्करः । धनुष में डोरी लगी ही रहती है, परन्तु क्या वह पुरुष के प्रयत्न बिना उस पर वाणों को चढ़ा सकता है? कदापि नहीं । उसी प्रकार भाग्याधीन बैठने वाला पुरुष बिना उद्योग-पुरुषार्थ के कार्य सिद्धि नहीं कर सकता । किसी भी कार्य में वह सफल नहीं हो सकता In1|| जैमिनि का भी यही मन्तव्य है : 528
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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