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________________ नीति वाक्यामृतम् (परमाकर्षति ) तेजी से खींचता है 147 ॥ (स्वयम्) अपने (अगुणम्) निर्गुण (वस्तु) पदार्थ ( खलु ) निश्चय से (पक्षपातात्) पक्षपात से (गुणवत्) गुणवान (न) नहीं (भवति) होती हैं (गोपालस्नेहात्) ग्वाले के प्रेम से (उक्षा) वृषभ - बैल (क्षीरम् ) दूध (न) नहीं ( क्षरति) निकालता है 1148 || विशेषार्थ :- रुई और अग्नि का भयंकर विरोध है । कपास के कोठे में तीव्र अग्नि प्रज्वलित हो जाय तो उसके बुझाने का प्रयास विफल होता है उसी प्रकार मूर्ख अज्ञानी जिस समय दुराग्रह ग्रहण कर ले अर्थात् हठ पकड़ ले तो उस समय उसे दुराग्रह छोड़ने का उपदेश करना व्यर्थ है क्योंकि जिद्दी पर चढ़ा वह उसे कदाऽपि नहीं छोड़ता । अतः इस अवसर पर उसकी उपेक्षा करना ही परमौषधि है । उससे भाषण नहीं करना ही उत्तम कार्य है ।144 ॥ विद्वान भागुरी ने भी कहा है : कर्पासे दह्यमाने तु यथा युक्तमुपेक्षणम् । एक ग्रहपरे मूर्खे तद्वदन्यं न विद्यते ॥ 11 ॥ अर्थ :- मूर्ख एकान्त हठग्राही होने पर विवेकी उसकी उपेक्षा कर दे यही उत्तम है क्योंकि रुई के ढेर को अग्नि पकड़ ले तो उसकी उपेक्षा ही श्रेयस्कर है ।।1 ॥ मूर्ख अविवेकी को हित का उपदेश देना उसकी उद्दण्डता या अनर्थकारी प्रवृत्ति को बढ़ाना ही है । अतः विवेकी जनों को मूर्खो के प्रति उपदेश नहीं करना चाहिए । कहा है : उपदेशो हि मूर्खानामपकाराय जायते 1 पयः पानं भुजंगानां केवलं विष वर्द्धनम् ।। सर्पराज को मधुर दुग्धपान भी मात्र विष की वृद्धि का ही कारण होता है उसी प्रकार मूर्ख जड़- बुद्धि पुरुष को कल्याणकारी उपदेश भी नाश का ही कारण होता | 145 ॥ गोतम ने भी कहा है। : यथा यथा जडो लोको विज्ञैः लोकैः प्रबोध्यते । तथा तथा च तज्जाड्यं तस्य वृद्धिं प्रयच्छति ॥ 11 ॥ कोपानल के जाज्वल्यमान होने पर मूर्खों को तत्काल समझाना मानों अग्नि में घी की आहुति डालने के समान है। अर्थात् जिस प्रकार आग में घृत डालने से वह भभक उठती है उसी प्रकार मूर्ख भी समझाने पर शान्त न होकर उसके विपरीत और अधिक कुपित होता जाता है । अतः मूर्ख को कुपितावस्था में समझाना निरर्थक है |146 || जिस वृषभ के नथुने नहीं होते वह उसे खींचने वाले पुरुष को अपनी ओर तेजी से खींचता है, उसी प्रकार मर्याद हठी मूर्ख पुरुष भी उपदेशकर्ता को अपनी ओर ही खींचता है अर्थात् उस शिष्ट से अधिक शत्रुता करता है । अतएव विवेकीजन मूर्खों को हित का उपदेश नहीं देवे 1147 ॥ भागुरि ने भी कहा है : 523
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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