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नीति वाक्यामृतम्
अनित्ये ऽव संसारे यावन्मात्रः परिग्रहः । तावन्मात्रस्तु सन्तापस्तस्भात्त्याज्यः परिग्रहः ।।1।।
राजा और धोबी की चिन्ता समान है क्योंकि राजा को अपने गज के पालन-पोषण रक्षण की चिन्ता रहती है और धोबी-रजक को अपने गधे के विषय में आकुलता बनी रहती है । अभिप्राय यह है कि परिग्रह सर्वत्र सबके लिए समान रूप से आकुलता का कारण रहता है ।। अत: इसका त्याग ही सुख का कारण है ।42 ॥ नारद ने
गजस्य पोषणे यद्वद्राज्ञः चिन्ता प्रजायते ।
रजकस्य च बालेये तादृक्षा वाधिका भवेत् ।।1।। अज्ञानी दुराग्रही होता है । उसका कदाग्रह उसी का घातक सिद्ध होता है । हठ को अपने ही विनाश का कारण ज्ञात कर विद्वानों को हठग्राहिता का त्याग करना चाहिए ।। जैमिनि ने भी कहा है :
एकाग्रहोऽत्र मूर्खाणां न नश्यति बिना क्षयम् ।
तस्मादेकाग्रहो विज्ञैर्न कर्तव्यः कथंचन 1॥ अर्थात् मूल् का हठ नाश का कारण होता है क्योंकि वह इसे छोड़ना नहीं चाहता । लोक में कहा है -
पकडी को छोड़े नहीं मूर्ख गधे की पूंछ ।
शास्त्ररीति जाने नहीं उलटी ताने मूंछ ।। परिणामतः लातों का. पात्र होकर अपना ही नाश करता है ।। अतः हठ नहीं करना सज्जनता का हेतू है - सुख का कारण है 143॥ मूर्ख के प्रति विवेकी का कर्तव्य, मूर्ख को समझाने से हानि व निर्गुण वस्तु :___कार्पासाग्नेरिव मूर्खस्य शान्तावुपेक्षणमौषधम् ।।44 ।। मूर्खस्याभ्युपपत्तिकरणमुद्दीपन पिण्डः ।।45॥ कोपाग्नि प्रज्वलितेषु मूर्खेषु तत्क्षणप्रशमनं घृताहुति निक्षेप इव ।46॥ अनस्तितोऽनड्वानिव धियमाणो मूर्ख: परमाकर्षति ।।47 ।। स्वयमगुणं वस्तु न खलु पक्षपाताद् गुणवद्भवति न गोपाल स्नेहादुक्षा क्षरति क्षीरम् 148 ॥
अन्वयार्थ :- (कार्पास:) रूई की (अग्नेि:) आग के (इव) समान (मूर्खस्य) मुर्ख के (शान्तौ) शान्त का उपाय (उपेक्षणम्) उपेक्षा (औषधम्) औषधि है । 44 ॥ (मूर्खस्य) मूर्ख का (अभ्युपपतिकरणम्) अभ्युदय का उपदेश (उद्दीपनपिण्डः) मूर्खता को ही बढ़ाना है 145 ॥ (कोपाग्नि प्रज्वलितेषु) क्रोध अग्नि जलने पर (मुर्खेषु) मुखे में (तत्क्षण) उस समय (प्रशमनम्) शान्त करना (घृता हुतिः) घी के होम (निक्षेपः) डालने के (इव) समान है। 46 || (अनस्तितः) नथुने रहित (अनड्वान्) वृषभ (इव) समान (ध्रियमानः) समझाने पर (मूर्ख:) अज्ञानी
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