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-नीति वाक्यामृतम्
वेश्या महिला, भृत्यो, भाण्डः, क्रीणिनियोगो, नियोगिमित्रं चत्वार्यशाश्वतानि ।89॥ क्रीतेष्वाहारेष्विव पण्यस्त्रीषु क आस्वादः 140॥ यत्र यावानेव परिग्रहस्तस्य तावानेव सन्तापः 141॥ गजे गर्दभे च राजरजकयोः सम एव चिन्ता भारः ।।42॥ मूर्खस्याग्रहो नापायमनवाप्य निवर्तते ।43॥
अन्वयार्थ :- (वेश्यामहिला) पण्यस्त्री (भृत्यः) नौतर (भाण्डः) भाड़ (क्रीणिनियोगः) टैक्स लेने वाला (नियोगिमित्रम्) अधिकारी मित्र (चत्वारि) ये चारों (अशाश्वतानि) आनित्य हैं । 139।। (क्रीतेषु) खरीदा (आहारेषु) भोजन के (इव) समान (पण्यस्त्रीषु) वेश्या में (क:) क्या (आस्वादः) आनन्द है ? 1140 ॥ (यत्र) जहाँ (यावान्) जितना (एव) ही (परिग्रहः) परिग्रह (तस्य) उसके (तावान) उतना (एव) ही (सन्ताप:) कष्ट है 141 ॥ (गजे) हस्ती में (गर्दभे) गदहे के पालन में (राजा) राजा (च) और (रजकः) धोबी (अनयोः) इन दोनों के (सम) समान (एव) ही (चिन्ताभारः) चिन्ताभार है 142 || (मूर्खस्य) मूर्ख का (आग्रह:) आग्रह-हठ (अपायम्) कष्ट (अनवाप्य) प्राप्त किये बिना (न) नहीं (निवर्तते) जाता है 143 ॥
विशेषार्थ:- वेश्या-बाजारु स्त्री. उद्दण्ड या क्रोधी नौकर-सेवक अधिक टैक्स या चंगी लेने वाला अधिकारी मित्र, इनकी मित्रता स्थिर रहने वाली नहीं है । अर्थात् इनके प्रेम में स्वार्थ और विशिष्ट लोभ रहता है, यही कारण है कि स्वार्थ में कमी आते ही इनकी मित्रता रफूचक्कर हो जाती है ।।9॥ शुक्र :
वेश्यापत्नि तथा भण्डः सेवकः कृतसंग्रहः । मित्र नियोगिनं यच्च न चिरं स्थैर्यतां व्रजेत् ॥1॥
1. वेश्या, 2. भण्ड-उद्दण्ड सेवक, 3. संग्रही अधिकारी और अधिकारी मित्र ये चारों अस्थायी हैं अर्थात इनके साथ मित्रता नश्वर है ।।39॥ चारों क्षणिक हैं ।
जिस प्रकार बाजार से खरीदा हुआ रुखा, सूखा, अशुद्ध भोजन सुखदायक नहीं होता, आरोग्यवर्द्धक व स्वादिष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार बाजारू वेश्याओं से सुख प्राप्त नहीं होता । अतः विवेकीपुरुषों को सदा के लिए वेश्याओं का सेवन त्याग करना चाहिए 140 || शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
क्रय कीतेन भोज्येन यादग्भुक्तेन सा भवेत् । ताहक संगेन वेश्याः सन्तोषो जायते नृप ।।1।।
संसार में कहावत है - "गाय न बाछी नींद आवे आछी" अर्थात् परिग्रह दुःख का मूल है । जिस व्यक्ति के पास जितना अधिक वाह्याडम्बर-परिग्रह, धन, धान्य, गाय, भैंस, मकान, रुपये-पैसा वस्त्राभरणादि, दासी आदि रहते हैं उसे उतना ही कष्ट सहना पड़ता है । अर्थात् अधिक परिग्रह से अधिक सन्ताप और अल्प से अल्प सन्ताप होता है । इसीलिए आचार्यदेव श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कुरल काव्य में कहा है "जिस जिस वस्तु का त्याग करा जाता है उस उस सम्बन्धी आपत्तियों का भी त्याग हो जाता है"। नारद विद्वान ने भी कहा है - 411
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