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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- न्यायालय में या राजदरबार में वाद-विवाद के निर्णय के लिए वर्षों के अनुसार शपथ दिलाना चाहिए । ब्राह्मणों को सुवर्ण व जनेऊ यज्ञोपवीत छूने की, क्षत्रियों को शस्त्र, रत्न, पृथ्वी, गज, अश्वादि वाहन और पलाण की, वैश्यों - व्यापारियों को कर्ण, बाल-बच्चा, कौड़ी, रुपया, पैसा व सुवर्ण के स्पर्श की, शुद्रों को दूध, बीज व सर्प की वामी छूने तथा धोबी, चमार आदि कारू सूद्रों को उनके जीविनोपकरणों की शपथ करानी चाहिए 131-35 | गुरु विद्वान ने भी उपर्युक्त कथन का ही समर्थन किया है :
हिरण्य स्पर्शनं यच्च ब्रह्मसूत्रस्य चापरम् । शपथो होष निर्दिष्टो द्विजातीनां न चापरः ।। 1 ।। शस्त्र रत्न क्षमायाणां न पल्याणां स्पर्शनाद्भवेत् । शपथः क्षत्रियाणां च पंचानां च पृथक् पृथक् ॥ 12 ॥ शपथो वैश्य जातीनां स्पर्शनात् कांबालयोः । काकिणी स्वर्णयोर्वापि शुद्धिर्भवति नान्यथा ॥ 13 ॥ दुग्धस्यान्नस्य संस्पर्शाद्वल्मीकस्य तथैव च । कर्त्तव्यः शपथः शूद्रैः विवादे निजशुद्धये ॥14 ॥ यो येन कर्मणा जीवेत् कारुस्तस्य तदुद्भवम् । कर्मोपकरणं किंचित् तत्स्पर्शाच्छुद्ध्यते हि सः ॥15 ॥
इसी भाँति व्रती व अन्य पुरुषों की शुद्धि उनके अपने-अपने इष्ट देवता के चरणकमल स्पर्श से अथवा प्रदक्षिणा कराने से होती है । तथा धन- शालि-चावल व तराजू को लांघने से होती है । एवं व्याधों से धनुष लांघने की और चाण्डाल, कंजर चमार आदि से गीले चमड़े पर चढ़ने की शपथ खिलानी चाहिए 136-38 ॥ गुरु ने भी व्रती, व्याध व चाण्डालादि से इस प्रकार शपथ विधि बताई है :
व्रातनोऽन्ये च ये लोकास्तेषां शुद्धिः प्रकीर्तिता । इष्ट देवस्य संस्पर्शात् दिव्यैर्वा शास्त्र कीर्तितः ॥1॥ पुलिन्दानां विवादे च चापलंघनतो भवेत् । विशुद्धि र्जीवनं तेषां यतः स्वयं प्रकीर्तितः ॥ 12 ॥ अन्त्यजानां सर्वेषामार्द्र चर्मावरोहणं शपथः शुद्धिदः प्रोक्तो यथान्येषां च वैदिकः ॥13 ॥
क्षणिक वस्तुएँ, वेश्यात्याग, परिग्रह से हानि, दृष्टान्त से समर्थन, मूर्ख का आग्रह :
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