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नीति वाक्यामृतम्
नस्तया रहितो यह द्धियमाणोऽपि गच्छति ।
वृषस्तद्वच्च मूर्योऽपि भर; कोपान निमाति ॥ ग्वाला बैल को अत्यधिक स्नेह करे तो क्या वह दुग्ध देता है ? नहीं । उसी प्रकार निर्गुण वस्तु पक्षपातवश किसी के द्वारा प्रशंसित किये जाने पर भी क्या गुणाधिक सम्पन्न हो सकती है ? नहीं कदाऽपि नहीं होती । कहा भी है कि -
"जीको जौन स्वभाव जाय न जी सो नीम न मीठो होय खाओ घी गुड़ सो ।।"
नारद ने भी कहा है :
स्वयमेव कुरुपं यत् तन्न स्थाच्छंसितं शुभम् ।
यथोक्षा शासितः क्षीरं गोपालेन ददाति नो ।। अभिप्राय यह है कि वस्तु स्वभाव अन्यथा नहीं किया जा सकता ।।48 ॥
"इति विवाद समुद्देशः" इति श्री परम् पूज्य चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् परम दिगम्बर, विश्ववंद्य, सन्तशिरोमणि आचार्य श्री 108 आदिसागर जी "अंकलीकर" महाराज के पट्टाधीश परम् पूज्य तीर्थभक्तशिरोमणि, अठारह भाषा भाषी, उद्भट, विद्वान श्री 108 आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज के संघस्था एंव परम् पूज्य वात्सल्य रत्नाकर, सन्मार्ग दिवाकर, खण्डविद्याधुरंधुर श्री 108 आचार्य विमलसागरजी की शिष्या प्रथमगणिनी, ज्ञानचिन्तामणि 105 आर्यिका विजयामती माताजी द्वारा यह हिन्दी विजयोदय टीका का 28वाँ समुद्देश परम् पूज्य, उग्र-तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती, अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश श्री 108 सन्मति सागर जी महाराज के परम पावन चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ ।
।। ॐ नमः शान्ति ।।
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