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________________ नीति वाक्यामृतम् गोष्ठीमवतारयेत् ।।27 ॥ न हि भत्तुंरभियोगात् परं सत्यमसत्यंवा वदन्तमवगृहीयात् ॥29॥ अर्थ सम्बन्धः सहवासश्च नाकलहः सम्भवति ।।29 ॥ निधिराकस्मिको वार्थलाभः प्राणः सह संचितमप्यर्थभपहारयति 180॥ अन्वयार्थ :- (दुर्वृत्तानाम्) दुष्टों को (दण्डात्) दण्ड से (अन्यः) दूसरा (विनयोपायः) नम्र करने का उपाय (न) नहीं (अस्ति) है (वक्रम) टेड़े (काष्ठम्) काठ या लकड़ी को (अग्निसंयोग) आग का संयोग (एव) ही (हि) निश्चय से (सरलयति) सीधा करता है । 125 ।। (ऋजुम्) सरल को (सर्वेः) सभी (अपि) ही (भी) (परिभवन्ति) तिरस्कार करते हैं (हि) निश्चय से (तथा) उस प्रकार (वक्र:) टेड़ा (तरु:) वृक्ष (न) नहीं (छिद्यते) कटता है (यथा) जिस प्रकार (सरलः) सीधा 1126 ॥ (स्व उपालम्भ) अपने उलाहने का (परिहारेण) दूर करने से (परम्) दूसरे के (उपालभेत्) न्याय पायें (स्वामिनम्) राजा को (उत्कर्षयन्) उन्नत करते हुए (गोष्ठीम्) विषय को (अवतारयेत्) उपस्थित करे ।।27 ॥ (हि) निश्चय से (भर्तुः) स्वामी के (अभियोगात्) अभिप्राय से (परम्) अतिरिक्त (सत्यम् असत्यम् वा ?) झूठ-सच (वदन्तम्) कहने वाले को (न) नहीं (अवगृह्णीयात्) ग्रहण करे ।।28 ॥ (अर्थसम्बन्धः) आर्थिक संबन्ध (च) और (सहगा. एकत्र निकास (अकलह:) बिना कलह (न) नहीं (संम्भवति) संभव होता है 129॥ (आकस्मिकः) अचानक (निधि) खजाना (वा) अथवा (अर्थलाभः) धन प्राप्ति (प्राणः) प्राणों के (सह) साथ (सञ्चितम्) एकत्रित (अर्थम्) धन को (अपि) भी (अपहारयति) हरण करता है 180॥ विशेषार्थ :- दुराचारी अन्यायरत एवं दुष्टों को वश करने के लिए दण्ड नीति ही समर्थ है अन्य कोई उपाय नहीं। क्योंकि टेडी व तिरछी लकड़ी को आग लगाने तपाने से ही सीधी होती है, उसी प्रकार पापी, नीच लोग भी दण्ड से ही सीधे होते हैं - न्यायमार्ग पर चलते हैं अन्यथा नहीं 125 ॥ शुक्र विद्वान भी कहता है : यथात कुटिलं काष्ठं वन्हियोगात् भवेदजुः । दुर्जनोऽपि तथा दण्डादजुर्भवति तत्क्षणात् ।।1।। दुर्जन, अन्यायियों को सन्मार्ग पर लाने को दण्डनीति ही समर्थ है ।।1। सरल स्वभावी मानव का सभी पराभव-तिरस्कार करते हैं, जिस प्रकार वन प्रदेश में टेडे-मेड़े वृक्षों को त्याग कर सरल-सीधों को ही काटा जाता है ।26 ॥ गुरु विद्वान का भी यही अभिप्राय है : ऋजु सर्वं च लभते न वक्रोऽथ पराभवम् । यथा च सरलो वृक्षः सुखं छिधते छेदकैः ॥1॥ न्यायाधीश धर्माध्यक्ष होता है । उसे न्याय करते समय राजा की अनुकूलता से उसे प्रसन्न करते हुए वादीप्रतिवादी का विवाद (मुकद्दमा) देखना चाहिए । न्याय इस प्रकार का हो कि उसे कोई उपालम्भ (उलाहना)न दे और मुद्दई एवं मुद्दालयों में से कोई एक दोषी कानूनन निर्णीत किया जावे 127 ॥ कहा है धर्माधिकृत मान निवेद्यः स्वामिनोऽखिलः विवादो न यथा दोषः स्वस्थ स्यान्न तु वादिनः ॥ गौतमेन ।। 518
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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