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नीति वाक्यामृतम्
यदि वादी-मुद्दई द्वारा पेश किये गये स्टाम्प, गवाह, लेख साक्षी आदि प्रमाण सन्देहास्पद प्रतीत हों तो न्यायाधीश सम्यक् प्रकार ऊहा-पोहकर-सोच-समझकर सावधानी से निर्णय-फैसला करे 120 ॥ शुक्र ने भी कहा है:
सन्दिग्धे लिखिते जाते साक्ष्ये वाथ सभासदैः ।
विचार्य निर्णयः कार्यों धर्मो शास्त्र सुनिश्चयः ॥॥ वादी और प्रादवादी स्वयं ही अपना निर्णय करने बैठ जाय तो सुनिश्चित है कि वे बारह वर्षों में भी निर्णय नहीं ले सकेंगे । अत: मध्यस्थ धर्माध्यक्ष अवश्य होना ही चाहिए । क्योंकि वे परस्पर अपना-अपना पक्ष समर्थित करते रहेंगे और इस प्रकार अनन्त युक्तियों खड़ी होंगी । इसलिए दोनों को न्यायालय में जाकर जज (न्यायाधीश) द्वारा अपना निर्णय कराना चाहिए । वहाँ सत्यासत्य का प्रामाणिक निर्णय होना संभव है । किसी विद्वान ने कहा है - 121॥
धर्माधिकारिभिः प्रोक्तं यो वादं चान्यथा क्रियात् ।
सर्वस्वहरणं तस्य तथा कार्य महीभुजाः ॥1॥ अर्थात् राजा को न्यायाधीश के निर्णय को स्वीकार कर नहीं मानने वाले का समस्त धन हरण कर लेना चाहिए 11॥
ग्राम. नगर व शहर में किसी सम्बन्धी विवाद को लेकर राजा के पास ही आना चाहिए । मुद्दई और मुद्दालयों को राजा से निर्णीत कराकर फैसला करवाना चाहिए 122 || गौतम विद्वान उद्धरण का भी यही अभिप्राय
पुरे वा यदि वा ग्रामे यो विवादस्य निर्णयः । कृतः स्याद्यदि भूयः स्यात्तद् भूपाने निवेदयेत् ॥1॥
राजा द्वारा किया गया फैसला निर्दोष होता है । इसलिए जो वादी या प्रतिवादी राजा के निर्णय को अमान्य करता है, मर्यादा का उल्लंघन करता है अर्थात् राजाज्ञा को नहीं मानता है तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए ।।23-24 ॥ शुक्र ने भी राजशासन विरोधी को मृत्युदण्ड कहा है :
वादं नृपति निर्णीतं योऽन्यथा कुरुते हठात् ।
तत्क्षणादेव वध्यः स्यान्न विकल्पं समाचरेत् ॥ दुष्ट निग्रह, सरलता से हानि, धर्माध्यक्ष का राजसभा में कर्तव्य, कलह के बीज व प्राणों के साथ आर्थिक क्षति का कारण :
न हि दुर्वृत्तानां दण्डादन्योऽस्ति विनयोपायोऽग्निसंयोग एव वक्र काष्ठं सरलयति ।।25 ॥ ऋजु सर्वेऽपि D परिभवन्ति न हि तथा वक्र तरुश्छिद्यते यथा सरलः ।।26 ।। स्वोपलाभ परिहारेण परमुपालभेत स्वामिनमुत्कर्षयन् ।।
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