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मीति वाक्यामृतम्
के अनुसार उन्हें दण्डित करता है 12 ॥ गुरु ने भी कहा है कि अपराधी के अपराध के विषय में सत्यासत्य विचार कर ही दण्ड देना चाहिए । यथा :
विजानीयात् स्वयं वाथ भूभुजा अपराधिनाम् ।
मृषा किं वाथवा सत्यं स्वराष्ट्र परिवृद्धये ॥ इस प्रकार न्याय से राष्ट्र की वृद्धि होती है ।। राजा को न्यायी होना चाहिए ।।2।।
राजसभा (विधानपरिषद्) के सभासद-एक्जीक्युटिव कौन्सिल या पार्लियामेंट के अधिकारीगण (गवर्नरजनरल, प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री तथा सेना-अर्थ-स्वास्थ्य-न्याय-यातायात सचिव, शिक्षा सचिव आदि) सूर्य के समान पदार्थ को जैसा का तैसा प्रकाश करने वाली प्रतिभा सम्पन्न होना चाहिए । अर्थात् उन्हें समस्त राज्य शासन सम्बन्धी न्याय कानून नीति व्यवहार को यथार्थ रूप में जानना व मानना चाहिए । तभी राज्य व्यवस्था सुचारु रह सकती है । ॥ गुरु ने कहा है :
यथादित्योऽपि सर्वार्थान् प्रकटान् प्रकरोति च । तथा च व्यवहारार्थान् ज्ञेयास्तेऽभी सभासदः ।।
जिन लोगों ने राज्यशासन सम्बन्धी क्रिया-कलापों, व्यवहारों को अर्थात् शिष्ट पालन, दुष्ट निग्रहादि की रीतिनीति को शास्त्र द्वारा अध्ययन कर अनुभव नहीं किया है और न राजनीति वेत्ताओं के साथ सत्समागम ही किया है उनसे उन्हें श्रवण भी नहीं किया है तथा राजा के साथ ईष्यालु और वाद-विवाद करने वाले हैं, उन्हें राजा का शत्रु ही समझना चाहिए। वे विधानसभा के सभासद बनने के सर्वथा अयोग्य हैं ।। अतएव विधानसभा के सभासदों के पद पर उन्हें ही नियुक्त करना चाहिए जो राजसञ्चालन में चतुर हों, अपने उत्तरदायित्व को सम्यक् प्रकार निर्वाह करते हों, अनुभवी हो, वाद-विवाद नहीं करने वाले हों, जो न्याय-प्रणाली को उचित व्यवस्थापूर्वक कार्य रूप में । परिणत कर सकने की क्षमता रखते हों, तथा राजनीतिज्ञ एवं अपने उत्तरदायित्वपूर्ण राज्यशासन आदि कार्यभार को पूर्ण रूप से संभालने में सक्षम हों ।। शुक्र विद्वान ने भी कहा है - 14 ॥
न दृष्टो न श्रुतो वापि व्यवहारः सभासदैः । न ते संभ्याख्यस्ते च विज्ञेया पृथ्वीपतेः ।।1।
ते: ।।। ।। संग्रहीत श्लोक है ।
जिस राज्यसभा में लोभी एवं पक्षपाती असत्यभाषी सभासद होते हैं, वे निःसन्देह राजा के मान व धन का नाश करेंगे 115 || गर्ग ने भी कहा है :
अयथार्थ प्रवक्तारः सम्या यस्य महीपतेः । मानार्थहानि कुर्वन्ति तस्य सद्यो न संशयः ।।
अर्थ वही है ।।
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