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नीति वाक्यामृतम्
यासु न क्रियते पापं ता एवं तिथयः स्मृताः ।
शेषा वन्ध्यास्तु विज्ञेया इत्येवं मनुरखवीत् ॥1॥ अर्थात् पापयुक्त तिथियाँ निरर्थक और पुण्य युक्त सार्थक हैं ।।52 ॥
तीर्थयात्रा वही है जहाँ पाप रूप क्रिया न हो । अर्थात् जहाँ पर मनुष्यपापाचरण से विरत हों वही तीर्थयात्रा सार्थक है । सारांश यह है कि अन्यत्र उपार्जित पाप कर्म तीर्थ क्षेत्रों पर नष्ट होते हैं, वहाँ उत्पन्न पाप तो वज्रलेप होंगे ही । नीतिकारों ने कहा है :
अन्यत्र यत् कृतं पापं तीर्थस्थाने प्रयाति तत् ।
क्रियते तीर्थगैर्यच्च वज्रलेपं तु जायते ॥1॥ पाण्डित्य, चातुर्य, व लोक व्यवहार :
तत्पाण्डित्यं यत्र वयोविद्योचिमनुष्ठानम् ।।54॥ तच्चातुर्यं यत्परप्रीत्या स्वकार्य साधनम् ।।55॥ तल्लोकिचतत्वं यत्सर्वजनादेयत्वम् ।।56॥
अन्वयार्थ :- (तत्) वह (पाण्डित्यम्) पण्डिताई है (यत्र) जहाँ (वयः) उम्र (विद्या) विद्या (उचितम्) योग्य (अनुष्ठानम्) आचरण है ।।54 ॥ (चातुर्यम्) चतुराई (तत्) वह है (यत्) जो (परप्रीत्या) पर से प्रेम द्वारा (स्वकार्यम्) अपना काम (साधनम्) सिद्ध करे 1155 ॥ (तत्) वह (लोकोचितत्वम्) लोकाचार है (यत्) जो (सर्वजनाः) सभी (आदेयत्वम्) ग्रहण करें ।।561
विशेषार्थ :- पण्डित बनना सरल है किन्तु पण्डिताई पाना दुर्लभ है । वास्तव में पाण्डित्य वह है जो अपनी प्राप्त विद्या और आयु-उम्र के अनुरूप आचरण करे । अर्थात् मन, वचन, काय की सरलता से सत्कार्यों का सम्पादन करे वही यथार्थ विद्वत्ता मानी जाती है ।।54 ॥ गुरु विद्वान् का भी यही अभिमत है :
विद्यायावयसश्चापि या योग्या क्रिया इह । तथा वेषश्च योग्य: स्यात् स ज्ञेयः पण्डितो जनैः ।।
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अर्थ :- अपनी उम्र व विद्या के अनुरूप वेषभूषा व आचरण पाले वही पण्डित है ।। पण्डित होकर तिलक, धोती दुपट्टा न धारण करे, पैंट, बूट, सूट पहन कर घूमे तो वह विपरीत है । अर्थात् अनुकूल कार्य ही शोभा पाता
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जिससे अपना कार्य सिद्ध होता है उससे स्नेह का व्यवहार कर कार्य सिद्धि कर लेना चातुर्य है 1155 ॥ शुक्र ने भी कहा है :
यः शास्त्रात् साधयेत् कार्य चतुरः स प्रकीर्तितः । साधयन्ति भेदाद्यैर्येते मतिर्विवर्जिताः ॥
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