________________
नीति वाक्यामृतम् |
अर्थात् जिसके पास वैभव है वह धनेश्वर ही कुलीन, पण्डित, श्रुतवान, गुणमण्डित, वक्ता-उपदेशक, शोभनीय माना जाता है । अभिप्राय यह है कि संसार के समस्त गुण धन के आश्रय से फलते फूलते हैं ।।] ॥ पवित्र वस्तु, उत्सव, पर्व, तिथि व यात्रा का माहात्म्य :
न रत्नहिरण्य पूताज्जलात्परं पावनमस्ति | 148 11 स्वयं मेध्या आपोवन्हितप्ताविशेषतः ॥149 ॥ स एवोत्सवोयत्र वन्दिमोक्षो दीनोद्धनं च 1150 ॥ तानिपर्वाणि येष्वतिथि परिजनयोः प्रकामं सन्तर्पणम् । 151 ॥ तास्तिथियो यासुवयोविद्योचितमनुष्ठानम् ॥54॥ सा तीर्थयात्रा यस्यामकृत्यनिवृत्तिः 1153 ॥
अन्वयार्थ :- ( रत्नहिरण्यपूतात्) रतन व सुवर्ण से कृत (जलात् ) जल से (परम्) बढ़कर (पावनम् ) पवित्र (न) नहीं (अस्ति ) है ।148 || (स्वयम् ) अपनी प्रकृति से (मेध्या) पवित्र (आप) जल (वह्नितस) अग्नि से गर्म (विशेषत: ) विशेष शुद्ध है 1149 || ( स ) वह (एव) ही (उत्सव :) उत्सव है (यत्र) जहाँ ( वन्दिमोक्षः) कैदियों को मुक्त (च) और (दीनोद्धनम् ) दीनों को अर्थयुत किया जाय 1150|1 (तानि) वे ( पर्वाणि) पर्व हैं (येषु) जिनमें (अतिथिपरिजनयोः) अतिथि और कुटुम्बी का (प्रकामम) विशिष्टाता से ( सन्तर्पणम्) सन्तुष्ट किया जाय ॥ 151 ॥ (तिथिय:) तिथि (तानि) वे हैं (यासु) जिनमें (अधर्माचरणम्) अधर्म का आचरण (न) न हो 1152 || (सा) वह (तीर्थयात्रा ) यात्रा (यस्याम्) जिसमें (अकृत्य) नहीं करने योग्य की (निवृत्ति:) निवृत्ति हो 1153 ॥ इति अन्वयार्थ :
विशेषार्थ :- वैडूर्य, पन्नादि रत्न और सुवर्ण डालकर पवित्र किये जल से अधिक पावन वस्तु अन्य कोई भी नहीं है । सारांश यह है कि मरकतमणी आदि से पवित्र किया शुद्ध जल पीने व स्नान करने के लिए योग्य
1148 11
जल स्वभाव से निर्मल व पवित्र होता है । यदि उसे अग्नि से उष्ण-गर्म कर लिया जाय तो विशेष शुद्ध हो जाता है | 149 || मनु के उद्धरण से भी :
आपः स्वभावतो मेध्याः किं पुनर्वन्हि संयुताः । तस्मात् सन्तस्तदिच्छन्ति स्नानमुष्णेन वारिणः ॥ 1 ॥
वही अर्थ है । 149 ।।
" अहिंसा परमोधर्मः" अहिंसा सर्वोत्तम धर्म है । धार्मिक महोत्सवों में इसका ही पुट होना चाहिए । अतएव उत्सव वे ही वास्तविक हैं जिनमें वन्दिजनों को बन्धक मुक्त किया जाय । और अनाथों की रक्षा की जाय । रक्षाबन्धनादि पर्वों का यही सन्देश है कि अतिथियों का दान सम्मान किया जाय, और साधर्मियों व कुटुम्बियों का भी यथायोग्य भरण-पोषण किया जाय 1150-51॥ भारद्वाज ने कहा
:
अतिथि पूज्यते यत्र पोषयेत् स्व परिग्रहम् । तस्मिन्नहनि सर्वाणि पर्वाणि मनुरब्रवीत् ॥
तीस तिथियाँ हैं इनमें वे ही तिथियाँ सार्थक हैं जिनमें मनुष्य पापाचार से विरत हो और धर्माचरण में प्रवृत्त "हो। जैमिनि ने भी कहा है :
504