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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- सुख समृद्धि, ईर्ष्या करने वालों के लिए नहीं है । इसी प्रकार गौरव भी दुराचारियों के लिए नहीं है ।। जैमिनि भी यही अभिप्राय प्रकट करते हैं:
जायते वाच्यता यस्य श्रोत्रियस्य वृथा हि तत् । अनाचारात्मदादिष्टं श्रोत्रियत्वं वदन्ति ना ? /1।।
जिसका आचरण लोकनिंद्य है वह विद्वान नहीं माना जाता है 115॥
उस पुत्र से क्या प्रयोजन, जिसका अध्ययन नहीं हुआ हो और न जिसमें विनयाचार ही हो ? अभिप्राय यह है कि जो विद्या विहीन और माता-पितादि गुरुजनों का विनय सम्मान नहीं करे वह पुत्र कहलाने का अधिकारी नहीं 16 || वल्लभदेव ने भी कहा है :
कोऽर्थःपुत्रेण जातेन योन विद्वान्न धार्मिकः ।
किंतया क्रियते धेन्वा या न सूते न दुग्धदा |1॥ अर्थ :- उस पुत्र के उत्पन्न होने से क्या प्रयोजन, जो न तो विद्वान है और न ही धर्मात्मा ही है । वह तो गर्भरहित व दुग्ध न देने वाली गाय के समान व्यर्थ है 6 ||
विद्या की शोभा नम्रता से है । ज्ञान के साथ चित्त सरल होना चाहिए यदि इसके विपरीत ज्ञान प्राप्ति के साथ मद-अहंकार बढ़ता है तो वह मदान्ध का ज्ञान निंद्य है उससे क्या प्रयोजन ? कुछ नहीं । शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
विद्या मदो भवेन्नीचः पश्यन्नपि न पश्यति । पुरस्थे पूज्यलोकं च नातिवाद्यं च वाह्यतः ।।1॥
ज्ञान मद से उद्धत मनुष्य नेत्रों के रहते हुए भी अन्धा है क्योंकि समक्ष उपस्थित पूज्यों का भी विनय नहीं करता। अभिप्राय यह है कि विद्या-ज्ञान के साथ विवेक होना भी अनिवार्य है ।17॥
पीठ पीछे निन्दा व चुगली करे और समक्ष में मधुरालाप कर गाढ़ प्रेमदर्शित करे, उसकी सज्जनता का दिखावा अतिनिंद्य है । कहा भी है :
परोक्षे कार्य हतारं प्रत्यक्षेप्रियवादिनाम् ।
वर्जयेत्ताद शं मित्रं विषकुम्भपयोमुखम् ।। अर्थात् दूध मुख पर लगा विष भरा घड़ा जिस प्रकार त्याज्य है उसी प्रकार परोक्ष में निन्दक और प्रत्यक्ष में स्नेह दिखाने वाला मित्र भी परिहार करने योग्य है । गुरु ने भी कहा है :
प्रत्यक्षेऽपि प्रियं बूते परोक्षे तु विभागते । सौजन्यं तस्य विज्ञेयं यथा किं पाक भक्षणम् ॥
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