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नीति वाक्यामृतम्
प्रकार दानहीन पुरुष भी उसी पशु समान भोजन कर मल-मूत्र क्षेपण करने वाला पशु ही है । अतः सत्पुरुषों को आहारदान देकर ही स्वयं भोजन करना चाहिए 1113 ॥ नारद ने भी लिखा है :
अदत्वा यो नरोऽप्यत्र स्वयं भुंक्ते गृहाश्रमी । सपशुर्नास्ति सन्देहो द्विपदः श्रृंगवर्जितः 101
जो गृहस्थ अतिथिसंविभाग नहीं करके स्वयं भोजन करता है वह निः सन्देह बिना सींग का दो पैर वाला पशु है ||1|| आचार्य कुन्दकुन्द देव ने भी कहा है :
योग्यातिथेः : सदा यस्य स्वागते मानसी स्थिति: श्रियोऽपि जायते मोदो वासार्थं तस्य सद्गनि ॥ 4 ॥
कुरल काव्य
अर्थात् जो मनुष्य योग्य अतिथि को प्रसन्नतापूर्वक स्वागत कर तृप्त करता है उसके घर में लक्ष्मी भी निवास करने को आह्लाद मानती है 114 ॥ अतः सद्गृहस्थ वही है जो यथायोग्य दान करे ।।
निःस्वार्थ प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है । जहाँ स्वार्थ वश प्रेम किया जाय और मतलब सिद्ध होने पर प्रीति न रहे वह प्रेम नहीं होती है | अतः नित्त्वार्थ भाव से स्थायी प्रेम महत्वपूर्ण है ||14 ॥ राजपुत्र
है।
ने कहा है :
यद्गम्यं गुरुगौरवस्य सुहृदो यस्मिंल्लभन्ते ऽन्तरम् । यद्दाक्षिण्यवशाद्भयाच्चसहसा नमो॑पहासाच्ययान् । यल्लज्जं न रुणद्धि यत्र शपथैरुत्पद्यते प्रत्ययः । तत्किं प्रेम स उच्यते परिचयस्तत्रापि कोपेन किं ॥ ॥ "एककोटिगतस्त्रेहो जडानां खलु चेष्टितम् ।।
" वादीभसिंह सूरि ॥
इक तरफा प्रेम मूर्खों की चेष्टा मात्र है ।।
मनुष्य का आचार ही क्या है यदि वह पाप पूर्ण है- पर स्त्री सेवन, चोरी आदि से सहित है अथवा मायाचार युक्त है ? छल कपट युक्त आचरण इस लोक में निंद्य और परलोक कष्ट दायक होता है 1115 || कुरल काव्य में कहा है:
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परोत्कर्षा सहिष्णूनां यथा नैव समृद्धयः 1 न गौरवं तथा किंचित् दुराचारवतः कृते ॥ 5 ॥
परिच्छेद 14