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नीति वाक्यामृतम् । परोऽपिहितवान बन्धुर्बन्धुरप्यहितः परः ।
अहितो देहजो व्याधिर्हि तमारण्यमौषधम् ।।1।। अर्थ :- जिस प्रकार शरीर में रोग होने पर भी अनिष्ट समझा जाता है, और दूर देश वन प्रदेश में उत्पन्न औषधि इष्ट व प्रिय समझी जाती है । उसी प्रकार अनिष्ट अहित करने वाला सहोदर-सगाभाई भी शत्रु है और विपत्ति में सहायता देने वाला दूसरा अपरिचित शत्रु भी उपकारी होने से बन्धु से भी अधिक प्रिय माना जाता है ॥
क्या वह मित्र है जो विश्वासपात्र न हो ? नहीं । अभिप्राय यह है कि जो अपने मित्र के धन, धान्य, कलत्र की रक्षा करने में विश्वासघात करे वह मित्र निंद्य और दुर्जन है । मित्र को यथार्थ विश्वास पात्र होना चाहिए 1110 गर्ग ने कहा है :
धनं धान्यं कलत्रं वा निर्विकल्पेन चेतसा । अर्पितं रक्षयेद्यत्तु तन्मित्रं कथितं बुधैः ।।1॥
अर्थ उपर्युक्त ही है ।
क्या वह गृहस्थ है जिसके श्रेष्ठ-शीलवती गृहणीरूपी सम्पत्ति नहीं है ? अभिप्राय यह है कि "गृहणी घर है" कहा भी है "बिना गृहणी घर भूत का डेरा ।" जिसके घर में कुलबधू रूप सम्पदा नहीं वह घर यथार्थ नहीं ।। शुक्र ने भी कहा है :
कु रूपा गतशीला च बंध्या युद्धपरा सदा । स गृहस्थो न भवति स नरकस्थः कथ्यते ।।1॥
जिसके घर में कुरुपा, शीलभ्रष्ट (व्यभिचारिणी) बांझ, युद्ध करने में तत्परा नारी हो वह गृहस्थी नरक समान समझना चाहिए । अत: उभयकुल विकासिका कुल बधू होना गृह की शोभा है |
वह दान क्या है, जहाँ सम्मान न हो ? दाता को पात्र के प्रति विनम्र होना चाहिए । जो दानी याचक को यथाविधि, यथायोग्य, यथाविनय पूर्वक दान नहीं देता उसको दान का यथोचित फल प्राप्त नहीं होता । अर्थात् दान का पारत्रिक (परलोक) सम्बन्धी फल प्राप्त नहीं होता है ।। यथाकाल देना चाहिए ।।12 ।। बलिष्ठ ने कहा है .
काले पात्र तथा तीर्थे शास्त्रोक्तविधिना सह । यद्दत्तं चाक्षयं तद्विशेषं स्यादेक जन्मजम् ।।1॥
योग्य काल में योग्य पात्र को यथोक्त विधिवत् दान देने से अक्षयपदप्राप्त होता है ।।12 || वह क्या भोजन है, जहाँ स्वयं भोजन करने के पूर्व अतिथि सत्कार न किया जाय? अतिथिसंविभागवत पालन कर ही भोजन करना चाहिए ।। यथाशक्ति भोजन काल में जो व्यक्ति सत्पात्रों को दान नहीं देता उसका भोजन करना निंद्य है, पशु-प्रवृत्ति है । अर्थात् जिस प्रकार पशु तृणादि भक्षण कर मल मूत्र विसर्जन करता है दान धर्म को जानता ही नहीं, उसी
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