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________________ -नीति वाक्यामृतम् H जो स्वामी-राजादि अपने कार्य की सिद्धि होने पर उन्हें निष्कासित कर देते हैं, अथवा उन्हें समय पर वेतनादि नहीं देते वे निंद्य हैं 15॥ भृगु ने भी कहा है : कार्यकाले तु सम्प्राप्त संभावयति न प्रभुः । यो भृत्यं सर्वकालेषु स त्याज्यो दूरतो बुधैः ।। प्रयोजन सिद्धि होने पर सेवकों की नियुक्ति न करने वाले स्वामी निंद्य हैं । ॥5 |जो सेवक या नौकर अपने द्वारा स्वामी के कार्य के सिद्ध होने पर उसके बदले में उससे पारिश्रमिक याचता है, तथा इसी प्रकार जो मित्र अपने मित्र की प्रयोजन सिद्धि में सहायक होकर उससे धन चाहता है या याचना करता है, वे भृत्य व मित्र दोनों ही दुष्ट-दुर्जन व अभद्र हैं 16 ॥ भारद्वाज का भी यही अभिप्राय है: वह स्त्री भी निंद्य व.अशोभन मानी जाती है जो धन के लिए पति से प्रेम करती है । लालच से उसका गाढालिंगन करती है । सारांश यह है कि पतिव्रता-शीलवती नारी को अपने पति के सुख-दुख में समान रूप से प्रेम व्यवहार करना चाहिए । ॥ नारद ने भी कहा है : मोहने रक्षतेऽङ्गानि यार्थेन विनयं व्रजेत् । न सा भार्या परिज्ञेया पण्यस्त्री सा न संशयः ॥ जिस देश में मनुष्य के जीविका के साधन कृषि, व्यापार, आदि की सुलभता न हो वह देश निंद्य है, त्याज्य है। अतः विवेकी मनुष्य को जीविका के साधन योग्य देश में निवास करना चाहिए 18 ॥ गौतम विद्वान ने भी कहा स्वदेशेऽपि न निर्वाहो भवेन् स्वल्पोऽपि यत्र च । विज्ञेयः परदेशः स त्याज्यो दूरेण पण्डितैः ।। अर्थात् जिस देश में जीवन निर्वाह न हो वह स्वदेश भी परदेश समान है ॥8॥ निंद्यबन्धु, मित्र, गृहस्थ, दान, आहार, प्रेम आचरण, पुत्र, ज्ञान, सौजन्य व लक्ष्मी : स किं बन्धुर्यो व्यसनेषु नोपतिष्ठते ।।9। तत्किं मित्रं यत्र नास्ति विश्वासः 10॥स किं गृहस्थो यस्य नास्ति सत्कलनसम्पत्तिः ॥11॥ तत्किं दानं यत्र नास्ति सत्कारः ।2॥ (स किम् गृहस्थो यस्य नास्ति सत्कलन सम्पत्तिः ।121) तत्किं भुक्तं यत्र नास्त्यतिथि-संविभागः13॥ तत्किं प्रेम यत्र कार्यवशात् प्रत्यावृत्तिः ॥14॥ (तत्किं) आचरणं यत्र वाच्यता मायाव्यवहारो वा ॥15॥ तत्किं अपत्यं यत्र नाध्ययनं विनयो वा ॥16॥ तत्किं ज्ञानं यत्र मदेनान्धया चित्तस्य ।।17॥ तत्किं सौजन्यं यत्र परोक्षे पिशुनभावः |18॥ सा किं श्री र्यया न सन्तोषः सत्पुरुषाणाम् ।19॥ विशेषार्थ :- वह क्या बन्धु-भाई है जो आपत्तिकाल में पास नहीं रहता ? अर्थात् विपत्ति में साथ देने वाला - सच्चा भाई बन्धु कहलाता है । ॥ चाणक्य : 492
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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