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________________ | नीति वाक्यामृतम् नहीं है उनका पालन-पोषण करना चाहिए'' किया है ।। दया सर्वोपरि धर्म है, इसे ही "अहिंसा परमोधर्मः" कहा है ।।2।। तीर्थ स्थानों की सेवा का फल विद्वानों ने सत्पात्रदान, वाह्यभ्यन्तर तप और सन्यासमरण करना कहा है । अर्थात विवेकी-तत्वज्ञ परुष उपर्युक्त क्रियाओं के सम्यक अनुष्ठानों से तीर्थ सेवा का फल स्थायी आत्म सुख प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत अज्ञानी नीति विरुद्ध जागा करते. उसको वोटा पापार्जन र राजमानवत विपरीत फल प्राप्त करते हैं ।।3 || गर्ग विद्वान ने कहा है : मुक्त्वा दानं तपो वाथ तथा प्रायोपवेशनम् । करोति यश्चतुर्थं यत्तीर्थे कर्म सपापभाक् ॥1॥ तीर्थ वन्दना कर जो दान, तप व सन्यासमरण नहीं करता, चतुर्थ कार्य करे तो वह पाप कमाने का ही पात्र होकर दुर्गति का उपार्जन करता है ।। तीर्थ स्थानों में रहने वाले का स्वभाव, निंद्य-स्वामी, सेवक, मित्र, स्त्री व देश : तीर्थोपवासिषु देवस्वापरिहरणं क्र व्यादेषु कारुण्यमिव, स्वाचारच्युतेषु पापभीरुत्वमिव प्राहुरधार्मिकत्वमतिनिष्ठुरत्वं वञ्चकत्वं प्रायेण तीर्थवासिनां प्रकृतिः । ॥ स किं प्रभुर्यः : कार्यकाले एव न वयति भत्यान ॥5॥ स किं भत्यः सखा वा यः कार्यमहिश्यार्थ याचते ।।6। यार्थेनप्रणयिनी करोति बागाकृष्टिं सा किं भार्या ।।7 ॥ स किं देशः यत्र नास्त्यात्मनो वृत्तिः ।।8।। अन्वयार्थ :- (तीर्थोपवासिषु) तीर्थ सेवियों में (देवस्वम्) देव द्रव्य (अपरिहरणम्) नहीं लेना (क्रव्यादेषु) हिंस्र जीवों में (कारुण्यम्) करुणा (इव) समान, (स्व) अपने (आचारच्युतेषु) आचारभ्रष्टों में (पापभीरुत्वम्) पाप से भय (इव) समान (अधार्मिकत्वम्) अधर्मपना (अतिनिष्ठुरत्वम्) कठोरता (वञ्चकत्वम्) ठगाई (प्रायेण) सामान्यतः (तीर्थवासिनाम्) तीर्थ निवासियों में (प्रकृतिः) स्वभावतः (प्राहु:) कहा जाता है 14॥ (सः) वह (किम्) क्या (प्रभुः) स्वामी (यः) जो (कार्यकाले) समय पर (एव) ही (भृत्यान्) सेवकों को (न सम्भावयति) उन्हें वेतन नहीं देता ।। ।। (सः) वह (किम्) क्या (भृत्यः) सेवक (वा) अथवा (मित्रः) मित्र (यः) जो (कार्यम्) कार्य (उद्दिश्य) को उद्देशकर (अर्थम्) धन (याचते) मांगता है । ॥ (या) जो नारी (अर्थेन) धन से (प्रणयनी) प्रीति (करोति) करती है (च) और (अङ्गाकृष्टि) गाढालिंगन [करोति] करती है (सा) वह (किम्) क्या (भार्या) पन्नी है ? ।।7।। (स:) वह (किम्) क्या (देशः) देश है (यत्र) जहाँ (आत्मनः) आजीविका की (वृत्तिः) साधन सामग्री (न) नहीं ? (अस्ति) है ।8॥ विशेषार्थ :- संसार में सिंह व्याघ्रादि हिंस्र, क्रूर प्राणियों में दयाभाव एवं आचारभ्रष्टों में पाप भीस्ता का होना आश्चर्य कारक माना जाता है उसी प्रकार तीर्थों पर रहने वाले पण्डों पुजारी ब्राह्मणों में भी देवता को चढ़ाई हुई वस्तुओं का त्याग करना महान् आश्चर्यकारी है । विद्वानों का कथन है और प्रत्यक्ष भी देखा जाता है कि वे पण्डे ब्राह्मण प्रायः अधार्मिक, निर्दयी, लोभी, (क्रूर) और छल-कपट करने वाले होते हैं |4|| 491
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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