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नीति वाक्यामृतम्
नीति शाक्यामृतम्
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(27)
व्यवहार-समुद्देशः
मनुष्यों का दृढ़ बन्धन, अनिवार्य-पालन-पोषण, तीर्थसेवा का फल :
कलत्रं नाम नराणाम निगडमपि दृढं बन्धनमाहुः ॥ त्रीण्यवश्यं भर्तव्यानि माताकलत्रमप्राप्तव्यवहाराणि चापत्यानि ।।2 || दानं तपः प्रायोपवेशनं तीर्थोपासनफलम् ।।
अन्वयार्थ :- (कलत्रंनाम) स्त्री ही (अनिगडम्) बेड़ी नहीं होने पर (अपि) भी (नाराणाम्) मनुष्यों का (दृढम्) मजबूत (बन्धनम) बंधन (आहः) है-कहा है ॥ (श्रीणि) तीन (अवश्यम) अनिवार्य (भर्तव्यानि) पोषण चाहिए (माताकलत्रमप्राप्तव्यवहाराणि) माता, स्त्री, अप्रौढ़ (च) और (अपत्यानि) पुत्रों को 12॥ (तीर्थोपासनम्) तीर्थ क्षेत्रों की भक्ति-पूजा का (फलम्) फल (दानम्) सत्पात्रदान (तपः) तप (प्रायोपवेशनम्) सन्यास मरण है 18॥
विशेषार्थ :- संसार में दो प्रकार के बन्ध हैं - अन्तरङ्ग और वहिरङ्ग । वाह्य में पत्नी लौह श्रृंखला नहीं होने पर भी मनुष्यों का सुदृढ बन्धन कहा है । अभिप्राय यह है कि पुरुष के मोह की उत्कटता का सबसे अधिक आकर्षण स्त्री संभोग है । अतः विषयी अनेकों कष्ट सहकर भी उसका व्यामोह तजने में समर्थ नहीं होता । इसी से इसे (नारी को) बन्धन कहा है || शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
न कलप्रात्परं किं चिद्वन्धनं विद्यते नृणाम् । यस्मात्तत्स्नेह निर्बद्धो न करोति शुभानि यत् ॥1॥
नारी व्यामोह में उलझा मनुष्य शुभ कर्मों को भूल जाता है ॥ मानव को अपने आश्रित रहने वाले माता, पत्नी और असमर्थ पुत्रों का अवश्य ही भरण-पोषण करना चाहिए। 2 || गुरु विद्वान ने भी कहा है :
मातरं च कलत्रं च गर्भरूपाणि यानि च ।
अप्राप्त व्यवहाराणि सदा पुष्टिं नयेद् बुधः ॥1॥ किन्हीं नीतिकारों ने 'अप्राप्त व्यवहाराणि" का अर्थ 'नावालिग' अर्थात् जिन बच्चों का कोई वारिस-संरक्षक
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