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________________ नीति वाक्यामृतम् होता ही है । अतः सुखी होना है तो आशा का त्याग करो 161 ॥ सच्चा, बुद्धिमान व विवेकी वही सन्त-साधुसंयमी अथवा गृहस्थ है जो अविद्या और तृष्णा से अपने चित्त-मन को अलिस रखता है ।।62॥ शील-नैतिकाचार ही पुरुषों का अलकार (आभूषण हैं) न कि ऊपर से लादे गये कड्कण कडे, केयूर मुकुटादि ये तो शरीर को कष्ट देने वाले हैं । अतः ये वास्तविक आभरण नहीं हो सकते हैं ।63॥ भर्तृहरि ने भी यही कहा है - 631 श्रोतं श्रुतेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणि न तु कङ्कणेन विभाति कायः करुणाकुलानां, परोपकारेण न तु चन्दनेन ॥ अर्थ :- कर्णाभरण शास्त्रश्रवण है न कि कुण्डल । तीन प्रकार के पात्रों को चतुर्विध दान देना हाथों की शोभा है कङ्कणादि आभरणों से शोभा नहीं होती । शरीर की सुन्दरता करुणाभाव है, परोपकार है न कि चन्दनलेपादि ।। अत: वाहा साधनों के अतिरिक्त तत्सपरिज्ञान दान व परोपकारादि से जीवन को अलंकृत करना चाहिए 163।। भूपति किसका मित्र होता है ? किसी का भी नहीं । क्योंकि अपराध करने पर वह किसी भी अपराधी को दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ता 1164 || सत्पुरुषों को दुर्जन के साथ भी सद्व्यवहार करना चाहिए । दुष्ट के प्रति यही व्यवहार कार्यकारी होता है, अन्य नहीं । क्योंकि सज्जन की सज्जनता के व्यवहार से प्रभावित होकर वह अपनी दुर्जनता का परित्याग कर सकता है 165 ॥ कारण यदि याचक-भिक्षुक को कुछ देने में असमर्थता है तो उसे मधुरवाणी से तृप्तकर देना चाहिए। कटु व अभद्रवचन व्यवहार कभी भी नहीं करना चाहिए । क्योंकि दुर्व्यवहार करने से दाता का यश और सम्मान नष्ट होता है और याचक को भी कष्टानुभव होगा । दाता की प्रतिष्ठा मर्यादा के साथ भिक्षुक की भी मानहानि होगी । फलतः वह उसका अनिष्ट चिन्तवन करने लगेगा । अतः सद्व्यवहार ही सन्मार्ग है 166 || वह स्वामी मरुभूमि के समान है जिसके समीप जाकर याचक पूर्णमनोरथ नहीं होते ।। इच्छित वस्तु न पाने से वे उसका जीवन व्यर्थ ही समझते हैं ।।67 ॥ राजा का सबसे बडा यज्ञ प्रजा की रक्षा करना है । प्राणियों की बलि चढाना यज्ञ कदाऽपि नहीं हो सकता है । अतः यक्ष इच्छुक राजा को प्रजा का कल्याण करना चाहिए ।।68॥ राजा का कर्त्तव्य है कि यह अपनी विशाल सेना और योग्य तीरन्दाज सुभटो का उपयोग प्रजा व राज्य की रक्षा में लगावे, शरणागतों की कामनापूर्ति में करना चाहिए । निरपराध प्राणियों के सताने में नहीं । अतः न्यायोचित कार्य करे 169॥ ॥ इति सदाचार-समुद्देश 12611 परम् पूज्य चारित्रचक्रवर्ती मुनि कुञ्जर सम्राट् विश्ववंच. घोर तपस्वी, एकान्त प्रिय, आध्यात्मय रसिक दिगम्बराचार्य श्री 108 आदिसागर जी महाराज(अंकलीकर) के पट्टाधीश परम् पूज्य समाधि सम्राट् तीर्थ भक्त शिरोमणि आचार्य वर्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था श्री प. पूज्य वात्सल्य रत्नाकर, निमित्त ज्ञान शिरोमणि श्री 108 आचार्य परमेष्ठी विमलसागर जी महाराज जी की शिष्या प्रथमगणिनी, ज्ञानचिन्तामणि 105 आर्यिका विजयामती माता जी द्वारा हिन्दी विजयोदयटीका का छब्बीसवाँ समुद्देश श्री परम पूज्य 108 तपस्वी सम्राट् भारतगौरव, सिद्धान्तचक्रवर्ती, अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश श्री आचार्य सन्मतिसागर जी महाराज के पावन चरण सान्निध्य में समाप्त किया ।। इत्यलम् ॥ ॥ ॐ नमः शुभम् भूयात् ॥ 489
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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