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नीति वाक्यामृतम्
जीवन निर्वाह के लिए न्यायनीति से ही धनार्जन करना चाहिए । शिष्टजन सावध कार्यों से बचने का प्रयत्न करते हैं ।।55 ॥ पराश्रित भोजन की अपेक्षा उपवास करना श्रेयस्कर है ।। क्योंकि दूसरे के आश्रित भोजन अनिश्चित और । अनियमित होता है । अत: विशेष कष्टदायक होता है ।। स्वाधीनता मानव का गौरव है इसलिए सदास्वाधीन रहना चाहिए 1156 || निवास स्थान वहाँ करना चाहिए जहाँ की समाज वर्णसंकर न हो ।57 ।। जन्मान्ध, ब्राह्मण, निस्पृह, दुःखकारण, उच्चपदप्राप्ति और सच्चा आभरण :
स जात्यन्धो यः परलोकं न पश्यति ।।58॥ व्रतं विद्या सत्यमानशंस्यमलवील्यता च ब्राह्मण्यं न पनर्जातिमात्रम।।59॥ निस्पहाणां का नाम परापेक्षा ।।60॥ कं पुरुषमाशान क्लेशयति ।।61। संयमी महाश्रमी व यस्याविद्या तृष्णाभ्यामनुपहतं चेतः ।।62॥ शीतमलङ्कारः पुरुषाणां न देह खेदावहो वहिराकल्पः ।।63॥
अन्वयार्थ :- (स:) वह (जातिः) जन्म (अन्धः) अन्धा है (यः) जो (परलोकम्) परलोक को (न) नहीं (पश्यति) देखता है 1158 ॥ (व्रतम्) पाँचव्रत (विद्या) ज्ञान (सत्यम्) सत्यभाषण (अन्हशंस्य) अहिंसा (अलौल्यता) लोभत्याग (च) और (सन्तोष:) सन्तोषादि (ब्राह्मण्यम्) द्विजत्व (न पुनः) न कि (जातिमात्रम्) ब्राह्मण कुल में जन्म मात्र ? |159॥ (निस्पृहाणाम्) निर्वाञ्छ को (का नाम) क्या (परापेक्षा) पर की अपेक्षा है ? 160 ॥ (आशा) आकांक्षा (काम्) किस (पुरुषम्) पुरुष को (क्लेशयति) क्लेश (न) नहीं देती ? 161 || (संयमी) साधु (वा) अथवा (गृहाश्रमी) गृहस्थ वही महान है (यस्य) जिसका (चेतः) चित्त (अविद्या) अज्ञान (तृष्णाभ्याम्) तृष्णा के द्वारा (अनुपहतम्) पीड़ित नहीं है ।।52 ॥
विशेषार्थ :- जिस व्यक्ति को परलोक सुधारने की चिन्ता या अभिप्राय नहीं होता है वह जन्मान्ध ही है 58 11 ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अपितु, व्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, विद्या-ज्ञानाभ्यास, सत्यभाषण, क्रूरता त्याग, लोलुपता परिहार से ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है, जातिमात्र से नहीं ।।59 ।। जिसे धनादि के प्रति लालसा नहीं होती वह परापेक्षी नहीं होता अर्थात् पराधीनता उसे मान्य नहीं होती ।160॥ भगवज्जिनसेनाचार्य जी भी कहते हैं :
तपः श्रुतं जातिश्च त्रयं ब्राह्मण कारणम् । तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः ।।1॥
आदिपुराण ।।
अर्थात् - तप, श्रुत ज्ञान, ब्राह्मण कुल में जन्मधारण करने वालों को सच्चा ब्राह्मण और इसके विपरीत को मात्र जातिब्राह्मण कहा है ।। तृष्णा के विषय में कहा है :
जो दस बीस पचास हुए शत लक्ष करोर की चाह जगेगी । अरब खरब लों द्रव्य भयो तो धरापति होने की चाह जगेगी ।।
उदय अस्त तक राज्य भयो पर तृष्णा और ही और बढ़ेगी । सुन्दर एक सन्तोष बिना नर तेरी तो भूख कभी न मिटेगी 1160॥
का आशय
आशा पिशाची है । संसार का कौन पुरुष है जो इससे ग्रसित न हो । अर्थात् प्रत्येक पुरुष आशा द्वारा पीड़िता
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