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नीति वाक्यामृतम् ...
अन्वयार्थ :- (प्रतिपाद्यानुरूपम्) उपदेश के विषय अनुसार (वचनम्) वाणी (उदाहर्तव्यम्) बोलना चाहिए 143॥ (आयानुरूप:) आमदनी के अनुसार (व्ययः) खर्च (कार्य:) करे ।।44॥ (ऐश्वर्य:) वैभव (अनुरूपः) अनुकूल (विलासः) सज्जा (विधातव्यः) करे 1451 (धन, श्रद्धान रूपः) धन श्रद्धानुसार (त्याग:) त्याग का (अनुसर्तव्यः) अनुसरण करे |46 ॥ (सहायानुरूपम्) सहायक अनुसार (कर्म) कार्य (आरब्धव्यम्) प्रारम्भ करे ।।47 ।। (स:) वह (पुमान्) मनुष्य (सुखी) सुखी (यस्य) जिसके (सन्तोष:) सन्तोष (अस्ति) है ।148 || (रजस्वलाभिगामी) रजस्वला सेवी (चाण्डालात्) भंगी से (अपि) भी (अधमः) नीच है 149॥ .
विशेषार्थ :- वक्ता का कर्तव्य है कि वह श्रोता के अनुकूल वचन कहे 143 || अपनी आमदनी के अनुसार व्यय-खर्च करना योग्य है, क्योंकि बिना सोचे-विचारे खर्च करने वाला कुबेर के समान भी दरिद्री-निर्धन हो जाता है 144 ।। अपने धन-वैभव के अनुकूल वेष-भूषा श्रृंगार, सज्जादि करना चाहिए |145 11 धन और श्रद्धानुसार, पात्रदान करने से आर्थिक कष्ट नहीं होता । शक्ति के अनुसार ही दानादि करना चाहिए । 46 ॥ अपने सहयोगियों के अनुसार कार्य का प्रारम्भ करना चाहिए ।47 ॥ संसार में सुख का मूल सन्तोष है । कहा है "सन्तोषी सदा सुखी" । कारण कि तीन लोक की सम्पदा मिलने पर भी तृष्णा शान्त नहीं होती, उसके त्याग से ही सुख प्राप्त होता है 148॥
रजस्वला समय में स्त्री का भोग-सेवन करने वाला पुरुष चाण्डाल से भी अधिक नीच है । पशु समान है। 49॥ मर्यादापालन, दुराचार से हानि, सदाचार से लाभ, संदिग्ध, उत्तमभोज्य रसायन, पापियों की वृत्ति, पराधीन भोजन, निवास योग्य देश :
सलज्जं निर्लज्जं न कुर्यात् ।।50 ।। स पुमान् पटावृतोऽपि नग्न एव यस्य नास्ति सच्चारित्रमावरणम्।1।। स नग्नोऽप्यनग्न एव यो भूषितः सच्चरित्रेण ।।52॥ सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धिः ।53॥ न क्षीर घृताभ्यामन्यत् परं रसायनमस्ति ।।54॥ परोपघातेन वृत्तिनिर्भाग्यानाम् ।।55वरमुपयासो, न पुनः पराधीनं भोजनम् 156 ।। स देशोऽनुसतव्यो यत्र नास्ति वर्णसङ्करः ।।57 ॥
विशेषार्थ :- लज्जाशील पुरुष को निर्लज्ज बनाना दुर्जनता है । अर्थात् नीतिवान पुरुष को शर्मयुक्त मानव को बेशर्म नहीं बनाना चाहिए । सारांश यह है कि कुसंस्कार वश नीति-विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाला पुरुष लज्जाश अपने हितैषियों के मध्य उनके भय से अवैध व अनर्थ रूप कार्य को नहीं करता । यदि कोई उसके अयोग्य कार्य को देखकर उसे निर्लज्ज बनाने की चेष्टा करे तो फिर वह भी बेशर्म हो जाता है और अनर्गल प्रवृत्ति करने से नहीं चूकता है 1150 ॥
जिस पुरुष के पास सच्चारित्र-सदाचार रूपी आवरण वस्त्र नहीं है वह सुन्दर बहूमूल्य वस्त्रों को धारण किये हुए भी नग्न है । अत: मानव का सदाचार व शिष्टाचार ही वस्त्र है ।।51 ॥ सदाचार शिष्ट पुरुष नग्न होने पर भी नग्न नहीं गिने जाते । क्योंकि लज्जा, शील, सद्भुत, सदाचार ही उसके सुन्दर यथार्थ वस्त्र हैं ।। अत: लोकप्रिय होने के लिए पुरुष को सदाचारी शिष्ट होना चाहिए ।। अपने आचरण के विशुद्ध रखने का प्रयत्न करना चाहिए 1152 ॥ जो व्यक्ति हर समय प्रत्येक व्यक्ति व कार्य के प्रति शंकालु रहता है उसके कार्य की सिद्धि ही नहीं होती ।। क्योंकि ऊहा-पोह के झूले में ही रहता है ।।53 ॥ आयु और शक्ति को वर्द्धन करने वाली वस्तु दूध व घृत को छोडकर अन्य कोई नहीं है । वस्तुतः घृत-दुग्ध सर्वोत्तम उत्तम रसायन सतत सेवनीय है ।।541
अन्य प्राणियों को पीड़ित कर जीविकोपार्जन करना पाप है । पर पीड़ा देने वाला पापी है । अतः अपने
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