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________________ नीति वाक्यामृतम् शत्रु पर आक्रमण करने मात्र से वह परास्त नहीं होता, अपितु युक्तियों साम, दाम, भेद और दण्ड आदि युक्तियों के द्वारा पराजित किया जाता है | 24 ॥ गर्ग ने भी कहा है : नाक्रान्त्य गृह्यते शत्रुर्यद्यपि स्यात् सुदुर्लभः । युक्ति द्वारेण संग्राह्यो यद्यपि स्याद्वलोत्कटः ॥ 11 ॥ अर्थात् बलवान भी शत्रु युक्तियों द्वारा वश किया जाता है मात्र आक्रमण करने से नहीं । राजनीति के अनुसार शत्रु वश करना योग्य है ।।1 ॥ निष्कारण कोपानल में भभकते राजा के समक्ष सेवकादि क्षणभर भी स्थिर नहीं रह सकते । अतः अपने सेवकों के साथ स्वामी को प्रेम का बर्ताव करना चाहिए 1125 ॥ कहा भी है : काकः काको धन हरे, कोयल काको देय 1 मीठी वाणी बोलकर जग अपनो कर लेय ।। रुदन व शोक से हानि, निरु सर्ग युद्ध का प्रतीक, जीवित पुरुष : न मृतेषु रोदितव्यमश्रुपातसमा हि किल पतन्ति तेषां हृदयेष्वङ्गाराः 1126 ॥ अतीते च वस्तुनि शोकः श्रेयानेव यद्यस्ति तत्समागमः ॥27॥ शोकमात्मनि चिरमनुवासयंस्त्रिवर्गमनुशोषयति ॥28॥ सकिं पुरुषों योऽकिंचनः सन् करोति विषयाभिलाषम् ॥ 29 ॥ अपूर्वेषु प्रियपूर्व सम्भाषणं स्वर्गच्युतानां लिङ्गम् 1130 ॥ न ते मृता येषामिहास्ति शाश्वती कीर्तिः ॥31॥ अन्वयार्थ :- (मृतेषु) मरने पर (न) नहीं (रोदितव्यम्) रोना चाहिए (हि) निश्चय से (अश्रुपात) आंसुओं के (समा) समान ( तेषाम्) मृतकों के, उनके (हृदयेषु) हृदयों पर (किल) निश्चय ही (अङ्गारा: ) अंगार (पतन्ति ) गिरते हैं 1126 | (अतीते) व्यतीत होने पर (वस्तुनि ) वस्तु के लिए ( शोकः) शोच करना ( श्रेयान् ) कल्याण कर है (एव) ही (च) और (यदि ) अगर ( अस्ति ) है तो (तत्समागमः ) संगम ( श्रेयान् ) कल्याणकारी (अस्ति ) है (एव) ही ||27 ॥ ( आत्मनि) चित्त में (शोकम् ) शोक ( चिरम्) बहुत समय (अनुवासयन्) रहने पर (त्रिवर्गम्) धर्म, अर्थ, काम (अनुशोषयति ) नष्ट करता है ||28|| (सः) वह (किम् ) क्या ( पुरुष ) पुरुष है (यः) जो (अकिंचन:) निर्धन (अपि) भी (विषयाभिलाषम् ) विषयों की इच्छा (करोति) करता है ! 29 || (अपूर्वेषु) अपरिचितों (प्रियपूर्वम्) प्रीतिपूर्वक (सम्भाषणम्) बोलना (स्वर्गच्युतानाम् ) स्वर्ग से आये हुओं का (लिङ्गम् ) चिन्ह [ अस्ति ] है । 130 11 (ते) वे (मृता:) मरे (न) नहीं ( येषाम् ) जिनकी ( इह ) इस लोक में (शाश्वती) चिर (कीर्तिः) यश (अस्ति ) है 131 | विशेषार्थ : बन्धु-बांधवों का कर्त्तव्य है कि अपने कुटुम्बी का स्वर्गवास होने पर रुदन करना त्याग, प्रथम उनका शरीर संस्कार दहन क्रिया करें। जो लोग रोते हैं, वे उनके अग्नि संस्कार में विलम्ब करने वाले होते हैं । इससे उन्हें कष्ट होता है । रुदनकरने वालों के अश्रु मृतक की हृदय भूमि पर अङ्गारों के समान गिरकर उन्हें दाह उत्पन्न करते हैं 1126 || गर्ग ने भी कहा है : 482
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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