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________________ | नीति वाक्यामृतम् भूर्खदुर्जन चाण्डालपतितैः सह सङ्गतिं न कुर्यात् ॥ 21 ॥ किं तेन यस्य हरिद्राराग इव चित्तानुरागः । 122 || स्वात्मानम विज्ञाय पराक्रमः कस्य न परिभवं करोति 1123॥ नाक्रान्तिः पराभियोगस्योत्तरं किन्तु युक्तेरुपन्यासः 1124 ॥ राज्ञोऽस्थाने कुपितस्य कुतः परिजनः ॥ 25 ॥ अन्वयार्थ :- मूढ़, दुष्ट, मातङग, एवं नीचों की संगति नहीं करना । दिशेषायें :सयों की सूर्य अज्ञानी, दुर्जन, दुष्ट, चाण्डाल - मातङ्ग एवं नीच कुल जाति व्युत व विधर्मीजनों के साथ नहीं रहना चाहिए ।। कहा भी है : मूर्ख दुर्जन चाण्डालै: संगतिं कुरुतेऽत्र यः 1 स्वप्नेऽपि न सुखं तस्य कथंचिदपि जायते ॥7 ॥ अन्वयार्थ :- (किम् ) क्या (तेन) उससे (यस्य) जिसका (चित्त) मन (हरिद्रा ) हल्दी के (रागः) रंग समान (इव) समान (अनुराग) प्रेमयुत है क्षणिक है ? 122 - विशेषता :- जिस पुरुष का चित्त हल्दी के रंग समान क्षणिक प्रेम से पगा हो उससे क्या लाभ ? कुछ भी लाभ नहीं है । जैमिनि विद्वान ने भी कहा है : आजन्म मरणान्ते यः स्नेहः स स्नेह उच्यते I साधूनां यः खलानां च हरिद्वाराग सन्निभः ।।1 ॥ अर्थ :- जन्म से लेकर मरणपर्यन्त समान रूप से रहने वाला स्नेह वास्तविक प्रेम है । साधुओं और दुर्जनों का स्नेह हल्दी के रंग की भाँति क्षणिक होता है। साधु वीतरागता के पोषक होते हैं परन्तु दुर्जन स्वार्थ का पोषक होता है। यह विशेष अन्तर है 111 ||22 ।। अन्वयार्थ :- (स्व) अपनी (आत्मानम्) आत्मशक्ति (अविज्ञाय ) बिना जाने (पराक्रमः) पराक्रम (कस्य ) किसके (परिभवम् ) तिरस्कार को (न) नहीं (करोति) करता है || 23 | ( पराभियोगस्य ) शत्रु का (उत्तरम्) पराक्रम उत्तर मात्र से (न) नहीं ( आक्रान्तिः ) परास्त हो ( किन्तु ) अपितु (युक्तेः) युक्ति द्वारा (उपन्यास) दूर हो ॥24 ॥ (राज्ञः) राजा का ( अस्थाने) अकारण (कुपितस्य) कोप के ( कुतः) कहाँ (परिजन) परिवार रहें ? 1125 H विशेषार्थ :- स्वयं की शक्ति का विचार किये बिना ही आक्रमण करने वाले का पराभव क्यों नहीं होगा? किसका नहीं होगा ? सभी का होता है ।123 ॥ वल्लभदेव विद्वान ने भी कहा है : यः परं केवलो याति प्रोन्नतं मदमाश्रितः । विमदः स निवर्तेत शीर्णदन्तो गजो यथा ॥1 ॥ अर्थात् अपने से अधिक बलवान का सामना करने को जो अहंकारवश जाता है वह टूटे दांत वाले गज समान परास्त होकर ही लौटता है ।।1 ॥ 481
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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