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नीति वाक्यामृतम्
विशेषतार्थ :- जो पुरुष पराई सन्तति, सम्पत्ति की वृद्धि को इष्ट प्रयोजन सिद्धि को स्वयं की इष्ट सिद्धि समझकर सन्तुष्ट होते हैं । आनन्द व्यक्त करते हैं वे मूर्ख हैं 19 ॥ कौशिक ने भी कहा है :
कार्येषु सिध्यमानेषु परस्य वशगेषु च । आत्मीयेष्विव तेष्वेव तुष्टिं याति स मन्दधीः ।।।
___ वही अभिप्राय है। आपत्तिकाल में आकुल-व्याकुल होना उपकारी नहीं है, अपितु धैर्यधारण करना लाभकारी है । भय के स्थानों में यथोचित धैर्यावलम्बन करना चाहिए Imo | भृगु ने कहा है :
भयस्थाने विषादं यः कुरुते स विनश्यति । [तस्य तज्जयदं ज्ञेयं यच्च धैर्यावलम्बनम् ।।1।।
संशोधित व परिवर्धित है ।
वह धनुर्धारी ही क्या जो संग्राम भूमि में प्रविष्ट हो, धनुष चढ़ाकर भी एकाग्रचित्त हो लक्ष्य भेद में प्रमाद करे-चूक जाये । इसी प्रकार वह तपस्वी भी निंद्य है जो अन्तसमय-समाधिकाल में एकाग्रचित हो आत्मदर्शन, मनन, श्रवण, निदिध्यासन-ध्यान में प्रवृत्त न होकर जीवन, आरोग्य व इन्द्रियविषयजन्य सुख में प्रवृत्त होता है ।।11। नारद विद्वान का भी यही कथन है :
व्यर्था यान्ति शरा यस्य युद्धे स स्यान चापधृक् । योगिनोऽत्यन्त कालेन स्मृति न च योगवान् ॥1॥
यही आशय है।
जो व्यक्ति अपने उपकारी का उपकार नहीं मानता, उसका प्रत्युपकार नहीं करता तथा अपकार करने वाले का प्रतीकार-शोधन नहीं करता वह इस लोक और परलोक में भी अपनी इष्ट सिद्धि नहीं कर सकता । अर्थात् इष्ट फल सिद्ध्यर्थ प्रत्युपकार और अपकारी का विरोध करना चाहिए ।।12 || हारीत ने भी यही लिखा है :
कृतेप्रतिकृतं नैव शुभं वा यदि वाशुभम् ।
य: करोति च मूढात्मा तस्य लोकद्वयं न हि ॥ दूरदर्शी, नीतिकुशल पुरुष शत्रु द्वारा कथित भी न्यायसंगत, हितकारी वचनों का तिरस्कार न करे अर्थात् उनकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए । अपितु ग्राह्य समझकर स्वीकार करना योग्य है । उन्हें निर्दोष समझकर तदनुसार प्रवृत्ति करे 113 ॥ 'नारद' के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है :
शत्रुणापि हि यत् प्रोक्तं सालङ्कारं सुभाषितम् । न तदोषेण संयोज्यं ग्राह्यं बुद्धिमता सदा ॥1॥
दुर्जन और सज्जनों के वचन क्रमशः विष व अमृत सदृश समझना चाहिए । दुष्टों की वाणी कलह, वैर-न् ।
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