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नीति वाक्यामृतम्
N विरोध, व द्वेषोत्पादक होती है जबकि सत्पुरुषों की वचनावली विद्वेष रूपी ज्याला का शमन करने वाली शीतली जल सदृश होती है । सर्व का कल्याणकारी होती है ।14॥ भारवि विद्वान ने कहा है :
खलो वदति तद्येन कलहः संप्रजायते ।
सजनो धर्ममाचष्टे तत्छेतव्यं किया तथा ॥1॥ जो प्रमादी-पुरुषार्थहीन प्राप्त लक्ष्मी को लेकर ही सन्तुष्ट हो जाता है लक्ष्मी उससे विमुख हो जाती है । क्योंकि साधारण धन में ही वह निमग्न होकर उसे वृद्धिंगत करने का प्रयत्न ही नहीं करता । अभिप्राय यह है कि न्यायोचित द्रव्यार्जन में प्रयत्नशील रहना चाहिए ||15 | भागुरि विद्वान भी कहते हैं :
अल्पेनापि प्रलब्धेन यो द्रव्येण प्रतुष्यति । पराङ्मुखो भवेत्तस्य लक्ष्मानैवात्र संशयः ॥॥
अर्थ उपर्युक्त ही है।
जो पुरुष शत्रुओं के द्वारा आक्रमित होने पर उसका प्रतिकार नहीं करता अर्थात् साम, दाम, भेद, दण्ड आदि नीतियों का प्रयोग नहीं करता उसके वंश की वृद्धि किस प्रकार होगी? अर्थात् शत्रुओं के वैर-विरोध की परम्परा रोकने से ही अपने वंश की वृद्धि होती है 16|| शक्र विद्वान ने भी शक्तिशाली वंश के हास के विषय में लिखा
सामादिभिरुपायै यों वैरं नैव प्रशामयेत् ।
बलवानपि तद्वंशो नाशं याति शनैः शनैः ।। उत्तम दान, उत्साह से लाभ, सेवक के पापकर्म का फल, दुःख का कारण :
__ भीतेष्वभयदानात्परं न दानमस्ति ।।17। स्वस्थासम्पत्ती न चिन्ता किंचित् कांक्षितमर्थ [ प्रसुते] दुग्धे किन्तूत्साह।18॥ स खलु स्वस्यैवापुण्योदयोऽपराधो वा सर्वेषु कल्पफलप्रदोऽपि स्वामी भवत्यात्मनि बन्ध्यः 119॥ स सदैव दुःखितो यो मूलधनमसंबर्धयन्ननुभवति ॥20॥
अन्वयार्थ :- (भोतेषु) भय से युक्त को (अभय) निर्भय (दानात्) करने से (परम्) अन्य (दानम्) दान (न) नहीं [अस्ति] है ।17 || (स्वस्य) अपने (असम्पती) धनहीन होने पर (चिन्ता) फिक्र (न) नहीं (किञ्चित्) कुछ (कांक्षितम्) इच्छित (अर्थम्) धन [प्रसूते] उत्पन्न करती है या (दुग्धे) देता है (किन्तु) अपितु (उत्साहः) उत्साह ।।18 ॥ (स;) वह (खलु) निश्चय (स्वस्य) अपना (एव) ही (अपुण्योदय:) पाप का (अपराध:) अपराध (वा) अथवा (सर्वेषु) सम्पूर्ण (फलप्रदः) फल देने वाले (अपि) भी (स्वामी) मालिक (आत्मनि) अपने में (वन्ध्यः ) अफल (भवति) होता है ।19॥ (सः) वह (सदैव) सतत (दुःखितः) दुखी है (यः) जो (मूलधनम्) मूल धन को (असंबर्धयत्) नहीं बढ़ाता (अनुभवति) अनुभव करता है 120 ॥
विशेषार्थ :- किसी भी भय से भीत को जो निर्भय करता है वह सबसे बड़ा दानी है । अर्थात् अभयदान
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