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________________ नीति वाक्यामृतम् M प्रायः पीड़ा-व्याधि से सभी घबराते हैं । परन्तु इससे रोगमुक्त नहीं होता । रोगों की सर्वोत्तम औषधि है धैर्य । जो मनुष्य धैर्यहीन है वह कितनी ही बहुमूल्य औषधियों का सेवन करे तो भी आरोग्य लाभ नहीं पाता । धीर-वीर पुरुष आत्मविश्वास से सरलता से रोगमुक्त हो जाता है । अतः धैर्य परमोत्तम औषधि है ।। धन्वन्तरि विद्वान स्वयं कहता है: व्याधिगस्तस्य यद्धैर्य तदेव परमौषधम् । नरस्य धैर्यहीनस्य किमौषधशतैरपि ॥1॥ अर्थ वही है। जो मानव अपने जीवन में अपवाद का पात्र नहीं हुआ, वास्तव में उसी का जीवन सफल है । जिसने कभी निंद्य कार्य नहीं किये, - हिंसा असत्य चोरी, कुशील परिग्रह पापों में नहीं फंसा वही बे दाग मानव महान है। वही भाग्यशाली है । ॥ गर्ग ने कहा है : आजन्म मरणान्तं च वाच्यं यस्य न जायते । सुसूक्ष्म स महाभागो विज्ञेयः क्षितिमण्डले ।।1॥ वही अर्थ है ॥ मूर्खता, भयकाल में कर्त्तव्य, धनुर्धारी व तपस्वी का कर्तव्य, कृतघ्नता से हानि, हितकारक वचन, दुर्जन व सज्जन के वचन, लक्ष्मी से विमुख व वंशवृद्धि में असमर्थ : पराधीनेष्वर्थेषु स्वोत्कर्षसंभावनं मन्दमतीनाम् ।।१॥ न भयेषु विषादः प्रतिकारः किन्तु धैर्यवलम्बनम् । 110॥ कृते प्रतिकृतकुर्वतो नैहिकफलमस्ति नामुत्रिकं च ।12।। शत्रुणापि सूक्तमुक्तं न दूषयितव्यम् ।॥3॥ कलह जननमप्रीत्युत्पादनं च दुर्जनानां धर्मः न सजनानाम् ॥14॥ श्रीनंतस्याभिमुखी यो लब्धार्थमात्रेण सन्तुष्टः 15 ॥ तस्य कुतो वंशवृद्धिर्यो न प्रशमयति वैरानुबन्धम् ॥16॥ अन्वयार्थ :- (पराधीनेषु) दूसरे के (अर्थेषु) प्रयोजनों में (स्वोत्कर्षम्) अपना उत्थान (संभावनम्) मानना (मन्दमतीनाम्) मूों का काम [अस्ति] है ।।७॥ (भयेषु) भय आने पर (विषादः) दुख (प्रतिकार:) निवारक (न) नहीं (किन्तु) अपितु (धैर्यम्) धीरता (धैर्यावलम्बनम्) धैर्यधारण है ।।10 ॥ (स:) वह (किम्) क्या (धन्वी) धनुर्धर (य:) जो (रणे) संग्राम में (शरसंधाने) तीर चलाने में (मुमति) चूकता है तथा (च) और (स:) किं) वह क्या (तपस्विनः) तपस्वी है (यः) जो (मरणे) समाधि काल में (मनः समाधाने) मन की स्थिरता में (मुह्यति) मुग्ध हो।11॥ (कृते) उपकारी का (प्रतिकृतम्) प्रत्युपकार (अकुर्वतः) नहीं करने वाले को (ऐहिकफलम्) इस लोक का फल (च) और (न) नहीं (अमुत्रिकम्) परलोक ही का फल होता है ।।12।। (शत्रूणा) शत्रु द्वारा (अपि) भी (सूक्तम्) यथार्थ (उक्तम्) कहा (न) नहीं (दूषयितव्यम्) दूषित करना उचित नहीं 113 ॥ (कलह:) झगड़ा (जननम्) पैदा करना (च) और (अप्रीतिः) शत्रुता (उत्पादनम्) उत्पन्न करना (दुर्जनानाम्) दुर्जनों का (धर्म:) काम है (न सज्जनानाम्) सज्जनों का नहीं 114 ॥ (तस्य) उसके (अभिमुख) सम्मुख (श्री) लक्ष्मी (न) नहीं य:) जो (लब्धार्थ) प्राप्त (मात्रेण) मात्र से (सन्तुष्टः) सन्तुष्ट हो [15(तस्य) उसके (वंशवृद्धि) कुलवृद्धि (यः) जो (वैरानुबन्धम्) वैर को (न) नहीं (प्रशमयति) शान्त करता है ।16 | 477
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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