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________________ नीति वाक्यामृतम् विशेषता :- पति पत्नि या स्त्री पुरुषों का एकान्त में परस्पर मिलना चार बातों से सफल होता है-1.प्रकृतिस्वभाव अर्थात् एकान्त में उचित वार्तालापादि द्वारा एक दूसरे के स्वभाव की परख करना, 2. उपदेश-अनुकूल बनाने वाली उपयुक्त शिक्षा-अनुकूल पठन-पाठन किया हुआ ज्ञान, 3. प्रयोग वैदग्ध्य अर्थात् एकान्त में करने योग्य हंसी, मजाक आदि In071 अन्वयार्थ :- (क्षुत्) भूख (तृष्) प्यास, (पुरीषम्) मल (अभिस्यन्द) मूत्रादि बाधा युत (आर्तस्य) पीड़ित के (अभिगमो) स्त्री संगम (अनवद्यम्) निर्दोष (अपत्यम्) पुत्र (न) नहीं (करोति) करता है ।108 ॥ (सन्ध्यासु) तीनों संध्याओं में (न) नहीं (दिवा) दिन में (न) नहीं (आप्सु) जल में (न) नहीं (देवायतने) देवालय में (न) नहीं (मैथुनम्) भोग (कुर्वीत्) करना चाहिए I109 ॥ (पर्वणि पर्वणि) प्रत्येक पर्व में (सन्धौ) संध्याओं में (उपहते) होने पर (वा) अथवा (अह्निः) दिन में (कुलस्त्रियम्) धर्मपत्नी को (न) नहीं (गच्छेत) जावे In101 (तद्) उस (गृहाभिगमने) घर की ओर जा (काम्) किसी (अपि) भी (स्त्रियम्) नारी को (अधिशायीत) साथ ले शयन (न) नहीं करे 11111 _ विशेषता :- भूखपीड़ित, प्यास, मल, मूत्र आदि के वेग को रोककर यदि स्त्री संभोग करता है तो उसके निर्दोष लम् सन्तान उत्पन्न नहीं होती ।। अर्थात रोगी, नि:शक्त, कुरुप अभद्र संतान होती है |os | विवेकीजनों की तीनों संध्याओं-प्रातः मध्यान्ह व सायंकाल में दिवस में, पानी में, जिनालय-मन्दिर में मैथुन क्रिया कभी नहीं करनी चाहिए ।109॥ धर्मात्मा, आत्मार्थियों को पों-पर्युषण, आष्टान्हिकादि में, तीनों काल संध्याओं में, सूर्यग्रह आदि भयङ्कर उपद्रवों से व्याप्त दिनों में अपनी कुल वधू-धर्मपत्नी का सेवन नहीं करना चाहिए 11110॥ किसी परायी स्त्री के घर में जाकर उसके साथ शयन नहीं करे । अर्थात् एक शैया पर नहीं सोये ।।111 ॥ नैतिक वेषभूषा व विचार-आचरण, आयात-निर्यात् दृष्टान्त द्वारा समर्थन अविश्वास से हानि : वंशवयोवृत्तविद्याविभवानुरुपोवेष: समाचारोवा कं न विडम्बयति ॥12॥ अपरिक्षितमशोधितं च राजकुले न किंचित्प्रवेशयेनिष्कासयेद्वा ।।113॥ श्रूयते हि स्त्री वेषधारी कुन्तल नरेन्द्रप्रयुक्तोगूढ पुरुषः कर्णनिहितेनासिपत्रेणपल्हवनरेन्द्र हयपतिश्च मेषविषाण निहितेन विषेण कुशल्यलेश्वरं जधानेति ॥14॥ सर्वत्राविश्वासे नास्ति काचित्क्रिया ।115॥ अन्वयार्थ :- (वंशः) कुल (वयः) उम्र (वृत्तः) आचरण (विद्या) शिक्षा (विभवः) धन (अनुरूपः) के अनकल (वेष:) वेषभूषा (वा) अथवा (समाचार:) आचार (कम) किसी को (न) नहीं (विडम्बयति) दुखी करता है In121 (अपरिक्षितः) बिना विचारा (च) और (अशोधितम) बिनाशोधा (राजकुले) राज कल में (किंचित) कुछ भी (न) नहीं (प्रवेशयेत्) प्रविष्ट करे (वा) अथवा (निष्कासयेत्) निकाले ।113॥ (श्रूयते) सुना जाता है (हि) निश्चय से (स्त्रीवेषधारी) स्त्री रूप वाला (कुन्तलनरेन्द्रप्रयुक्तः) कुन्तल राजा से प्रयुक्त (गूढपुरुषः) गुप्तचर (कर्मनिहितेन) कान के पास छिपाये (असिपत्रेण) शस्त्र से (पल्हवनरेन्द्रम्) पल्लवराजा को (च) और (हयपतिः) हय राजा (मेषविषाणनिहितेन) मेष का सींग छिपाये (विषेण) विष द्वारा (कुशस्थलेश्वरम्) कुशस्थल को (जघानः) मार डाला (इति) वस Im14 ॥ (सर्वत्र) सब जगह (अविश्वासे) अविश्वास करने पर (काचित्) कोई भी (क्रिया) कार्य (न) नहीं (अस्ति) है In15॥ 473
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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