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________________ - नीति वाक्यामृतम् (मृदुः) कोमल (उपवनम्) बगीचे के समान सेवती है In03 || (तृतीयप्रकृतिः) तीसरी प्रकृति वाली (सुरत) काम के (उत्सवातय) उत्सव समान भोगती है ।। विशेषार्थ :- जो पुरुष चकवा-चकवी के समान दिन में मैथुन सेवन करने वाले हैं वे रात्रि में सच्चिक्कण वस्तु का भक्षण करे । तथा चकोरपक्षी की भाँति रात्रि में मैथुन करने वाले व्यक्ति हैं, उन्हें दिन में भोजन करना चाहिए ।। सारांश यह है कि मनुष्य भी पक्षियों के समान रात्रि में मैथुन सेवन करते हैं, उन्हें दिन में ही भोजन करना चाहिए ।। इससे अहिंसाधर्माणलन और स्वारमा संलग होता है ।27 98 ।। जो कबूतर के समान हीनशक्ति होने पर भी काम सेवन करते हैं, उन्हें वीर्य वर्द्धक घृत, शर्करादि मिश्रित सुस्वादु, सुन्दर मालपुआ आदि पदार्थ भक्षण करने चाहिए 1199 ॥ एक बार ही जिसने बच्चा उत्पन्न किया है ऐसी गाय के दूध में उडद से खीर बनाकर भोजन करने से कामोद्दीपन होता है 100 || कामभोग से विरक्त हुई नारी के साथ सुरक्रीडा (कामसेवन) नहीं करना चाहिए ।।101 ॥ अधिक वर्षा वाले उत्तर प्रदेश का निवासी पुरुष अथवा वृष प्रकृति वाला पुरुष पद्मिनी स्त्रियों द्वारा विशेष प्रिय होता है । अर्थात् वे मान्यता देती हैं ।। कामशास्त्र में वृष, शश, और अश्व इन तीन प्रकृति वाले पुरुष एवं पद्मिनी, शंखनी और हस्तिनी ये तीन प्रकृति वाली महिलाओं का उल्लेख है । इनमें से प्रथम वृष प्रकृति पुरुष को पद्मिनी, दूसरे शश प्रकृति वाले को शंखिनी और तृतीय अश्व स्वभावी को हस्तिनी स्वभावी नारियाँ प्रेम करती हैं । ये नारियाँ पुरुष को हरी-हरी कोमल दूब युक्त बगीचे के रमणीय स्थल के समान सुखपूर्वक सेवन करती हैं । तीसरी अश्व प्रकृति वाला पुरुष अत्यन्त वीर्य युक्त होने से मैथुन के समय स्त्रियों को विशेष सन्तोष देने वाला होता है ।102-104 || प्रसन्नचित्त, वशीकरण, मल-मूत्रादि रोकने से हानि, विषय-भोग के अयोग्य काल व क्षेत्र, परस्त्री त्याग - धर्मार्थस्थाने लिङ्गोत्सवं लभते ।।105 ।। स्त्री पुंसयोर्न समसमायोगात्परं वशीकरणमस्ति 1106 ॥ प्रकृतिरूपदेशः स्वाभाविकं च प्रयोग वैदग्ध्यमितिसमसमायोग कारणानि 1107॥ क्षुत्तृर्षपुरीषाभिष्यन्दार्तस्याभिगमो नापत्यमनवधं करोति ।108॥ न संध्यासु न दिवा नाप्सु न देवायतने मैथुन कुर्वीत 109॥ पर्वणि पर्वणि संधौ उपहते वाह्नि कुलस्त्रियं न गच्छेत् ।।110॥ न तद् गृहाभिगमने कामपि स्त्रियमधिशयीत 11॥ विशेषार्थ :- धर्मस्थान-जिनालय, सरस्वतीभवन, अर्थ स्थान-व्यापारादि के स्थानों में (लिङगाः) इन्द्रियाँ (उत्सर्व) प्रसन्नता (लभते) प्राप्त करती हैं । अर्थात् इन स्थानों में इन्द्रियाँ सुखानुभव करती हैं 1105॥ अन्वयार्थ :- (स्त्रीपंसयोः) स्त्री पुरुषों के (सम समायोगात्) समान संयोग से (परम्) अन्य (वशीकरणम्) मोहनमंत्र (न) नहीं (अस्ति) है ॥ विशेषता :- दम्पत्ति वर्ग के समान जोडी-योग मिलना सबसे बड़ा मोहन मंत्र है । आकर्षण का केन्द्र है। अर्थात् स्त्री पुरुषों के समसमायोग (एकान्त स्थान में मिलना जुलना, वार्तालाप करना आदि) को त्याग कर दूसरा कोई भी वशीकरण नहीं है Ino6॥ अन्वयार्थ :- (प्रकतिः) स्वभाव (उपदेशः) उपदेश (स्वाभाविकम्) नैसर्गिक (प्रयोगः) उपयोग (च) और (वैदग्ध्यम्) चातुर्य (इति) ये (समसमायोग) एकान्त मिलन के (कारणानि) हेतू हैं ।।107 ॥ 42
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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