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नीति वाक्यामृतम्
विशेषता :- जो मनुष्य अपने वंश-कुटुम्ब, वय (उम्र) सदाचार-कुल धर्म आदि, विद्या-शिक्षा और धनादि ऐश्वर्य के अनुकूल अपनी वेशभूषा रहन-सहन रखता है, वैसा ही आचरण भी करता है, वह कभी भी दुःखी या पीडित नहीं होता अपितु सदैव सुखी रहता है ।112॥ कारण कि उक्त प्रकार से रहने वाला समाज सम्मान का पात्र बनता है उसे सभी प्रेम की दृष्टि से देखते हैं ।। सर्वत्र उसका सम्मान होता है ।।
राजा को निरन्तर सावधान रहना चाहिए । उसे अपने आत्महितैषियों से अपरीक्षित व सदोष वस्तुओं को अपने राजमहल में प्रविष्ट न होने दे और न ही बाहर निकलने दे । प्रत्येक आने वाली या जाने वाली वस्तु का अपने हितैषी, प्रामाणिक पुरुषों से प्रथम जाँच-पडताल कराना चाहिए ।।173 ।।
ऐतिहासिक सत्य प्रमाण है कि कुन्तल देश के राजा ने अपना गुप्तचर स्त्री के वेष में भेजा था । वह अपने कानों के पास खडग-असि छिपाये था । उसने राजमहल में प्रविष्ट हो पल्लवनरेश को मृत्यु का वरण करायामार डाला । इसी भाँति हयदेश के राजा ने अपना गुप्तचर मेढे के सींग में विष स्थापित कर भेजा, उसने उससे कुशस्थल के नरेश को समाप्त किया अर्थात् मार डाला । अतः अपरिक्षित व असंशोधित वस्तु राज-गृह में नहीं आना चाहिए और न ही बाहर निकालनी चाहिए ||114।।
यद्यपि संसार स्वार्थ से भरा है तो भी यदि सर्वत्र विश्वास ही न किया जाय तो कोई भी कार्य सिद्ध ही नहीं होगा। अत: कहीं न कहीं विश्वास भी करना चाहिए ।।115॥
॥ इति दिवसानुष्ठान समुद्देश समाप्त हुआ ।। इति श्री परम पूज्य प्रातः स्मरणीय, विश्ववंद्य चारित्र चक्रवर्ती मुनि कुञ्जर सम्राट् महान तपस्वी, वीतरागी, दिगम्बराचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टाधीश परम पूज्य समाधि सम्राट् तीर्थभक्त शिरोमणि आचार्य परमेष्ठी श्री 108 महावीर कीर्ति जी महाराज के संघस्था एवं परम पूज्य कलिकालसर्वज्ञ खंडिविद्या धुरंधर श्री 108 आचार्य विमलसागर जी महाराज की शिष्या ज्ञान चिन्तामणी सिद्धान्त विशारदा, प्रथम गणिनी 105 आर्यिका विजयामती द्वारा यह नीति वाक्यामृत की हिन्दी विजयोदय टीका का सान्वय श्री परम पूज्य वात्सल्यरत्नाकर, सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री 108 अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश श्री आचार्य सन्मतिसागर जी के पावन चरण सान्निध्य में "दिवसानुष्ठान" नामा पच्चीसवां समुद्देश समाप्त हुआ ।
|| ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।।
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