SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - नीति वाक्यामृतम् । भूपति को मंत्री-सचिव, वैद्य, ज्योतिषी के बिना कदाऽपि दूसरी जगह प्रस्थान नहीं करना चाहिए 1870 भोजन व वस्त्र परीक्षा विधि, कर्त्तव्यकाल, भोजन आदि का समय, प्रिय व्यक्ति का विशेष गुण, भविष्यकार्य-सिद्धि के प्रतीक : वनावन्यचक्षुषि च भोज्यमुपभोग्यं च परीक्षेत् ।।88 ॥ अमृते मरुति प्रविशति सर्वदा चेष्टेत ॥४॥ भक्तिसुरतसमरार्थी दक्षिणे मरुति स्यात् ।।१०॥ परमात्मना समीकुर्वन् न कस्यापि भवति द्वेष्यः ॥1॥ मनः परिजनशकुन पवनानुलोम्यं भविष्यतः कार्यस्य सिद्धेलिङ्गम् ।।92॥ अन्वयार्थ :- राजा का कर्तव्य है कि (भोज्यम्) भोजन सामग्री (च) और (उपभोग्यम्) वस्त्रा- भूषण (वह्नौं) अग्नि में (च) और (अन्यचक्षुषि) अन्य स्वजनों से दिखाकर (परीक्षेत्) परीक्षा करे 188 ॥ (अमृते) अमृसिद्धि योग में (मरुते) वायु के चलने पर - (प्रविशति) प्रवेश करने पर (सर्वदा) हमेशा (चेष्टेत) कार्य करे 199॥ (दक्षिणे) दक्षिण दिशा में (मरुति) वायु (स्यात्) होगी (भक्तिः) भगवद्भक्ति, (सुतरः) मैथुन (समरार्थी) युद्ध का इच्छुक होवे 100॥ (परमात्मना) भगवान का उपासक (समीकुर्वन्) करने वाला (कस्यापि) किसी का भी (द्वैष्यः) द्वेषी (न) नहीं है ।91॥ (भविष्यतः) भावी (कार्यस्य) कार्य की (सिद्धेः) सिद्धि का (लिगम्) चिन्ह (मनः) मन (परिजनः) परिवार (शकुनः) शुभशकुन (पवनानुलोम्यम्) अनुकूल वायु [अस्ति] है 192 ।। विशेषार्थ :- राजा को चाहिए कि वह भोजन करने के पूर्व भोजनसामग्री को अग्नि में डालकर परीक्षा करे । आग में यदि नीली ज्वाला निकले तो समझ लो विषमिश्रित है । उसे त्याग दो । इसी प्रकार वस्त्रादि की। भी परीक्षा अपने योग्य विश्वस्तजनों से करा लेना चाहिए । क्योंकि विघ्न बाधाओं से रक्षित रहने का यह उपाय है 1880 जिस समय अमृत (योग) सिद्धि योग हो उस समय समस्त कार्य करने योग्य हैं । इससे मनुष्य की कार्य सिद्धि होती है 1189॥ जिस समय दक्षिणी वायु चल रही हो, उस समय मनुष्य को भोजन, मैथुन व युद्ध में प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार करने से उस कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त होती है |190॥ परमात्मा के प्रति अनुरागी-भक्त अथवा अन्य को अपने सदृश समझने वाला व्यक्ति किसी का भी शत्रु नहीं होता ।91 ।। मन, सेवक, शकुन व वायु की अनुकूलता भविष्य में करने वाले कार्यों की सफलता-सिद्धि के चिन्ह हैं। अर्थात् हृदय प्रफुल्ल होना, सेवकों का प्रसन्न सन्तुष्ट रहना, दाहिनी आँख फड़कना आदि शुभ शकुन हैं इनसे प्रतीत होता है कि भविष्य में अवश्य सफलता मिलेगी 1192। गमन व प्रस्थान के विषय में, ईश्वरोपासना का समय व राजा का मंत्र जाप्य : नैको नक्तं दिवं वा हिंडेत 1193॥ नियमित मनोवाक्कायः प्रतिष्ठेत ।।94॥ अहनि संध्यामुपासीतानिक्षत्रदर्शनात्।।95 ॥ चतुः पयोधिपयोधरां धर्मवत्सवतीमुत्साहबालधिं वर्णाश्रमखुरां कामार्थश्रवणांनय प्रताप विषाणां सत्य शौच चक्षुषं न्यायमुखीमिमां गां गोपयामि, अतस्तमहं मनसापि न सहे योऽपराध्येत्तस्यै, इतीमं मंचं समाधिस्थो जपेत् ॥6॥ 470
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy