SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् करना चाहिए | 179 ।। पूज्यपुरुष-माता-पिता-गुरुजन विशेष कारण वश अतिक्रुद्ध भी हों तो भी उनकी आज्ञा के विपरीत नहीं होना चाहिए और उनका अपमान करने की चेष्टा भी नहीं करना चाहिए । पूज्य पुरुषों का कोप भी कल्याणकारी होता है क्योंकि उनका कोप अकारण नहीं होता |180 || अपने विश्वस्त व्यक्ति द्वारा अपरिक्षित स्थान में, तथा दूसरे के स्थान में भी सहसा प्रविष्ट नहीं होना चाहिए। शत्रुओं के स्थान में बिना परीक्षण के प्रवेश करने से विपत्ति आने का भय होता है । यहाँ तक कि आत्मघातप्राणनाश का भी प्रसंग आ सकता है । अतः राजादि विवेकी पुरुषों को प्रथम अपने आत्मीयजनों द्वारा पता लगवाकर ही अपरिचित स्थानों में प्रवेश करना श्रेयस्कर है ।81॥ रथादि सवारी, स्थान निषेध, अगन्त व्यस्थान, उपासना, अयोग्य पदार्थ, कण्ठस्थ न करने योग्य विद्या, राजकीय सस्थान: नाप्तजनैरनारुढं बाहनमध्यासीत् ।।82॥ न स्वैरपरीक्षितं तीर्थ सार्थ तपस्विनं वाभिगच्छेत् ।।83॥ न याष्टिकरविविक्तं मार्ग भजेत् । 184॥न विषाय हारौषधिमणीन् क्षणमप्युपासीत ।।85 ।। सदैव जागलिकी विद्या कण्ठे न धारयेत् ।186 ॥ मंत्रिभिषग्नैमित्तिकरहितः कदाचिदपति न प्रतिष्ठेत् ।।87॥ अन्वयार्थ :- (आसजनैः) अपने विश्वासीजनों द्वारा (अनारुढम्) बिना चढ़े (वाहनम्) सवारी को (न) नहीं (अध्यासीत) प्रयोग करे 1182 ।। (स्वैः) अपने द्वारा (अपरिक्षितम्) परीक्षारहित (तीर्थम्) तीर्थ-स्थान (सार्थम्) । वणिक् जन (तपस्विनम्) योगी, सन्यासी (वा) अथवा (अन्यः) अन्य कोई के पास (न) नहीं (अभिगच्छेत्) जावे 183 ॥ (याष्टिकैः) पुलिस द्वारा (अविविक्तम्) अपरिचित (मार्गम्) रास्ते को राजादि (न) नहीं (भजेत्) प्राप्त करे ।।जावे॥84 ॥ (विषापहार:) विष को दूर करने वाली (औषधि:) जडी-बूटी (मणीन्) मणियों को (क्षणम्) एकक्षण भी (न) नहीं (उपासीत्) सेवन करे 185 ॥ (जागलिकीम्) जहर उतारने की (विद्याम्) विद्या को (सदैव) सतत् (कण्ठे) कण्ठ में (न) नहीं (धारयेत) धारण करे |185॥ (मंत्रिः) सचिव (भिषक) वैद्य (नैमितिक) ज्योतिषी (रिहतः) बिना (कदाचित्) विशेषार्थ :- स्व परिचित विद्वान या अन्य पुरुष द्वारा यदि किसी घोडे, रथ आदि की आरुढ होकर परीक्षा नहीं की गई हो तो उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए । अपने हितैषियों द्वारा विश्वस्त की हुई ही सवारी में आरुढ़ होना चाहिए 182 || विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह उन सरोवरादि तीर्थ, व्यापारी एवं तपस्वियों के पास नहीं जावे, जिनकी कि उसके विश्वस्त-निजी लोगों द्वारा तलाश नहीं की हो ।। अभिप्राय यह है कि प्रथम उपर्युक्त विषयों में अपने लोगों से जानकारी प्राप्त करे तदनन्तर उन्हें उपयोग में लावे ।।83 ॥ राजा को पलिस द्वारा संशोधन, निर्णीत किये बिना मार्ग पर नहीं जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे पथ पर खतरे की संभावना होना संभव है ।184॥ विवेकी बुद्धिमान विष परिहार करने वाली औषधि व मणि की क्षण मात्र भी उपासना नहीं करे ।।85 ।। इसी प्रकार विष उतारने की विद्या का अभ्यास करे, परन्तु उसे कण्ठस्थ न करे । अर्थात् सर्वत्र उसका प्रयोग करे 1861 469
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy