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नीति वाक्यामृतम्
प्रजापालक (राजा) को बछड़े सहित गाब की प्रदक्षिणा देकर न्याय सिंहसन पर आसीन होना चाहिए यह लोकपद्धति या सामान्य नीति है ।।73 ॥
जिसे राजा की ओर से अधिकार प्राप्त नहीं है और जो राजा द्वारा बुलाया नहीं गया है ऐसे व्यक्तियों को राजसभा में प्रविष्ट होने का अधिकार नहीं है । अर्थात् उन्हें राजसभा में नहीं आना चाहिए 174॥
- सभ्य, सदाचारी व्यक्तियों को अपने पूज्य व आदरणीय माता-पिता, गुरु व अन्य महानुभावों का खड़े होकर अभिवादन करना चाहिए । अर्थात् प्रणामादि करना उचित है 175|| स्वयं देख-रेख करने योग्य कार्य, कुसंगति त्याग, हिंसामूल काम क्रीडा त्याग :
देवगुरुधर्मकार्याणि स्वयं पश्येत् ।।76 ।। कुहकाभिचारकर्मकारिभिः सहन संगच्छेत् ।।7।।प्राण्युपद्यातेन कामक्रीडां न प्रवर्तयेत् 178॥
अन्वयार्थ, विशेषार्थ :- धर्मात्मा पुरुषों को पुण्यार्जन के श्रेष्ठ कार्य देवस्थान (मन्दिर) गुरुकार्य (वैयावृत्तिसेवादि) व धर्म कार्यों की देख-भाल-व्यवस्था स्वयं ही करनी चाहिए । अन्य सेवकादि के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए 176॥
अन्वयार्थ :- (कुलहक:) कपटी (अभिचारः) जारण, मारण (कर्मकारिभिः) उच्चाटनादि करने वालों के (सह) साथ (न) नहीं (संगच्छेत्) जावे 177॥ (प्राणि:) जीव (उपघातेन) हिंसा से (कामक्रीडाम) कामसेवन को (न) नहीं (प्रवर्तयेत्) प्रवर्तन करे 178॥
विशेषार्थ :- विवेकी पुरुष को कपटी, जार, व्यभिचारी, जारण-मारण, उच्चाटनादि कर्म करने वालों की संगति नहीं करना चाहिए ।।7।
मनुष्य को ज्ञान और विवेक से कार्य करना चाहिए । जिन कार्यों में प्राणिवध हिंसा अधिक हो ऐसे कार्यों में अर्थात् अन्याय से भोगों में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए ।।78 ॥ सतत् श्रेष्ठ पुरुषों की ही संगति करनी चाहिए । परस्त्री के साथ भगिनी, मातृभाव, पूज्यों के प्रति कर्त्तव्य, शत्रु स्थान प्रवेश निषेध :
जनन्यापि परस्त्रिया सह रहसि न तिष्ठेत् 179॥ नातिक्रुद्धोऽपि मान्यमतिकामेदवमन्येत् वा 180 ॥ नाप्ताशोधितपरस्थान-मुपेयात् 1811
अन्वयार्थ :- (जननी) माता (अपि) भी (परस्त्रिया) परनारी (सह) साथ (रहसि) एकान्त में (न) नहीं (तिष्ठेत्) बैठे 179 ॥ (अतिक्रुद्धः) अत्यन्त क्रोधी (अपि) भी (मान्यम्) पूज्य को (न) नहीं (अतिक्रामेत्) उलंघन करे (वा) अथवा (अवमन्येत्) अपमानित करे ।।30॥ (आप्तः) अपने विश्वासी से (अशोधित:) बिना देखें (परस्थानम्) दूसरे से स्थान में (उपेयात्) प्राप्त हो जावे 181 ।।
विशेषार्थ :- सत्पुरुषों को परस्त्री वृद्धा या माँ भी हो तो भी एकान्त में अकेले उसके साथ बैठक न करे। अर्थात् वार्तालाप नहीं करे ।।79 ॥ इन्द्रियाँ बहुत चंचल होती हैं उन पर अधिकार करना सरल नहीं है वे विद्वानों को भी अपने चंगुल में फंसा लेती हैं । अत: आध्यात्म्यप्रिय सन्तपुरुषों को स्त्रीसहवास से सतत् दूर रहने का प्रयत्न
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