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नीति वाक्यामृतम्
होती अपितु सम्यक् चारित्र रूप प्रयत्न से होती है 16 । इसी प्रकार ज्ञानमात्र से भी इष्ट (मोक्ष) सिद्धि संभव नहीं है अन्यथा “यह जल है" इस ज्ञान मात्र से ही तृषा शान्त हो जाती, परन्तु होती नहीं 17 ॥ इसी प्रकार चारित्रमात्र से भी मोक्ष नहीं मिल सकता । यथा जन्मान्ध व्यक्ति अनार के वृक्षों के पास पहुँच जाये तो भी क्या छाया मात्र के सिवाय उसे फलों का लाभ हो सकता है ? नहीं ।।8॥
लंगड़ा पुरुष ज्ञान युक्त होने पर भी गमन (चारित्र) के बिना इष्ट स्थान को नहीं पा सकता, नेत्रविहीन ज्ञान के अभाव में गमनादि क्रिया करता हुआ भी अभीष्ट लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता तथा श्रद्धाहीन होने पर क्रिया और ज्ञान भी निष्फल हो जाते हैं । अतः सम्यग्दर्शन, सम्याग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों का एकीकरण ही मुक्ति है, मोक्षप्राप्सि है ।19॥
सम्यग्दर्शन से स्वर्गादि वैभव प्राप्त होता है, सम्यग्ज्ञान से कीर्तिकौमुदी विस्तृत होती है, सम्यक् चारित्र से इन्द्रादि द्वारा पूजा प्राप्त होती है । इन तीनों के समन्वय से मोक्ष मिलता है ।10 ॥
यह आत्मारूपी पारा अनादिकाल से मिथ्यात्वादि कुधातुओं से मिश्रित हो अशुद्ध हो रहा है उसे शुद्ध करने के लिए ये तीनों अनूठा साधन हैं। अर्थात् सम्यक् चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान घरिया-उपाय है और सम्यग्दर्शन मूलरसौषधि (नीबू के रस में घुटा सिंध्रप) है, इनके सम्प्रयोग से आत्मारूपी पारा शुद्ध किया जा सकता है, सांसारिक समस्त व्याधियों से रहित हो मुक्त किया जा सकता है ।11॥
मानव को सम्यक्त्वप्राप्तयर्थ चित्त को विशुद्ध करना चाहिए । ज्ञानलक्ष्मी लाभार्थ आप्तोक्त शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए और सम्यक् चारित्र की सिद्धि के लिए कष्ट सहिष्णु बन कर पञ्चपापों का त्याग करना चाहिए । न्यायोपार्जित सम्पत्ति को सत्पात्रदानादि में व्यय करना चाहिए 112॥ य.ति.पृ. 326 सम्यग्दर्शन का स्वरूप
सत्यार्थ, समीचीन आप्त (देव), आगम और सप्त तत्त्वों का तीनमूढता, आठमद और छः अनायतनों से तथा आठ शंकादि दोषों से रहित व आठ अंगों सहित जैसा का तैसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । निश्चय से शुद्धात्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणों द्वारा इसकी पहिचान की जा सकती है 110 (य.ति.च.आ.6.274) आप्त का लक्षण व स्वरूप
जो अठारह दोषों से रहित है, सर्वज्ञ-तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों के साथ जो जानता है, जो वीतरागी और हितोपदेशी है ऐसे ऋषभादि तीर्थकर सच्चे आत हैं । 2 ॥ (य.ति.आ. 6 पृ. 274) आगम का स्वरूप
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थों में अविरोध रूप से जो मनुष्य को प्रवृत्ति कराने में समर्थ हो वह