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________________ - नीति वाक्यामृतम् राज्य का स्वरूप व महत्व धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः ||1|| अर्थ-धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि का साधक राज्य आदरणीय व मान्य होता है । यहाँ 'नमः' शब्द पूज्य व आदर अर्थ में प्रयुक्त है । अथवा ऐसा प्रतीत होता है कारण में कार्य का उपचार कर राज्य को नमन किया है । जो राज्य धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि करता है वही अंतिम मोक्ष पुरुषार्थ का साधक होता है । स्वयं राजा पुरुषार्थ चतुष्टयों का निर्विरोध सेवन करता हुआ प्रजा को भी समृद्ध करता है । धर्म का स्वरूप यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः सः धर्मः ।।2।। अर्थ-(यतो) जिससे (अभ्युदय:) नर सुर का वैभव-चक्रवर्तित्वादि एवं इन्द्र अहमिन्द्रादि पद की तथा (निः श्रेयस) अनन्त मोक्ष सुख की सिद्धि हो (सः) वह (धर्म:) धर्म कहा जाता है । श्री स्वामी समन्तभद्र जी ने भी धर्म का लक्षण करते हुए लिखा है देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्ह णम् । संसार दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे 12।।र.भा.॥ अर्थात् आचार्य कहते हैं "जो प्राणियों को सांसारिक दुःखों से निकाल कर कर्म रहित परम् मोक्ष सुख को प्राप्त करता है वह धर्म है, उसे मैं कहता हूँ । स्वयं आचार्य सोमदेवसूरि ने भी अपने यशस्तिलकरचम्पू काव्य के षष्ठ् आश्वास से अष्टम् आश्वास पर्यन्त धर्म की विशद् व्याख्या की है । अतः यहाँ उसका संक्षिप्त वर्णन उपयुक्त होगा जिसके द्वारा प्राणियों को भौतिक सुखों के साथ पारमार्थिक सुख की उपलब्धि होती है उसे धर्म कहते हैं ।।1। वह धर्म प्रवृत्यात्मक और निवृत्यात्मक के भेद से दो प्रकार का होता है । मोक्ष के साधक सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र (रत्नत्रय) में प्रवृत्ति करना और संसार के बीज भूत मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्र का त्याग करना धर्म है । गृहस्थ धर्म और यतिधर्म के भेद से धर्म की सिद्धि होती है । अर्थात् धर्म के ये दो भेद हैं ।। 2 ।। रत्नत्रय की प्राप्ति मोक्षमार्ग है और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र एवं मिथ्यातप ये संसार के कारण हैं ।। 3 ॥ युक्तिपूर्वक सिद्धपदार्थो-जीवादि सप्त तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, इन्हीं को शंसय, विपर्य और अनध्यवसाय रहित जानना सम्यग्ज्ञान है ।। 4 ।। हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म परिग्रह इन पाप क्रियाओं का त्याग सम्यक् चारित्र है ।। 5 ॥ इन तीनों का एकीकरण मोक्षमार्ग है । मात्र तत्त्व श्रद्धान से मुमुक्षु को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । क्योंकि क्षुधापीड़ित मनुष्य की इच्छामात्र से वडफल-ऊमरफल नहीं पकते, अपितु योग्य प्रयत्न करने से पकते हैं । उसी प्रकार श्रद्धामात्र से शिव की प्राप्ति नहीं ।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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