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नीति वाक्यामृतम्
शास्त्र समीचीन आगम कहा जाता है तथा हेयोपादेय-त्याज्य और ग्राह्य पदार्थों का जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे सत्यार्थ । आगम कहत हैं । ॥ (य.ति.च.पृ.276 आ.6)
लोक व्यवहार में जिस प्रकार माता (जाति), पिता (कुल) की शुद्धि-पिण्डशुद्धि होने पर उनकी सन्तान-पुत्रादि शुद्धि मानी जाती है, उसी प्रकार आत की शुद्धि (वीतरागता और सर्वज्ञाता आदि) होने पर ही उनके द्वारा प्रणीत आगम को प्रमाणिक कहा या माना जाता है । आगम के चार भेद हैं- 1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग 3. चरणानुयोग और 4. द्रव्यानुयोग ।
जिसके द्वारा प्रेसठ शलाका के महापुरुषों का जीवनचरित्र जाना जाय, अथवा किसी एक महापुरुष व तीर्थङ्कर का आख्यान वर्णित किया जाय उसे प्रथमानुयोग कहते हैं । स्वामी समन्तभद्राचार्य ने इसे बोधि, समाधि का निधान कहा है । यह पूज्य पुरुषों के जीवन का विश्लेषण कर स्वर्ग, मोक्ष के मार्ग दर्शन में सक्षम होता है In |
जिसमें जयलोक, मध्यलोक और अधोलोक एवं तिर्यक् लोक का स्पष्टीकरण किया गया हो, चारों गतियों का स्वरूप उसके कारणादि निरूपण हो वह करणानुयोग है ।।2
सदाचार, शिष्टाचार व तपाचारादि द्वारा आत्मविशुद्धि का मार्गनिर्देश करने वाला शास्त्र चरणानुयोग कहलाता है । यह आत्मा (संसारी) को परम विशुद्ध बनने के लिए सतत् जागरुक रखकर कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा देता है। इसे चरणानुयोग कहते हैं ।। 3 ।।
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व का यथार्थ ज्ञान जिसके द्वारा कराया जाता है उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं ।।
इन तत्वादि पर अकाटय श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्ज्ञान का स्वरूप
___ जो वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को हीनाधिकता से रहित, तथा संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रूप मिथ्याज्ञान रहित निश्चय करता है-सत्यस्वरूप दर्शाता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं (य.ति.च.आ.6.325/र.क.पा.अ.2.) सम्यग्ज्ञान भव्यों को हिताहित का विवेक कराता है । श्रीमाणिकनन्दि जी ने परीक्षा मुख ग्रन्थ में लिखा है "हिताहित प्राप्ति परिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।।2।। अर्थात् हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराने में जो समर्थ हो उसे प्रमाण कहते हैं और वह ज्ञान ही है ।
मतिज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । यह अतीन्द्रिय (धर्माधर्मादि) पदार्थों में भी उत्पन्न होता है । इससे स्पष्ट होता है कि राग-द्वेष रहित, निर्मल चित्तवृत्ति होने पर मनुष्य को तत्त्वज्ञान दुर्लभ नहीं हैं ।। (य.ति,आ.64.325)
निर्बाध वस्तु में भी यदि बुद्धि विपर्यय हो जाय तो यह ज्ञाता का ही दोष है वस्तु का नहीं । यथा मन्ददृष्टि से