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________________ नीति वाक्यामृतम् (अतिमात्रभोजी) शक्ति से अधिक खाने वाला (देहम्) शरीर (च) और (अग्निं) जठराग्नि को (विधुरयति) नष्ट करता है 1145 ॥ I विशेषार्थ :- पाचन शक्ति से अधिक भोजन करने वाला शारीरिक शक्ति और जठराग्नि भोजन को पेट में पचाने वाली अग्नि को ही नष्ट कर देता है । लोक में अग्नि के पुट बिना जिस प्रकार भोजन तैयार है उसी प्रकार उदरस्थ भोजन को पकाने जठराग्नि के उत्तेजित दीप्त न होने से वह शरीर की शक्ति को क्षीण कर देती है । साथ जठराग्नि को ही अतिमन्द कर देती है 1145 ॥ अन्वयार्थ (दीप्त:) उत्तेजित ( वन्हिः) जठराग्नि (लघुः) हलके (भोजनात्) भोजन से (बलम् ) शक्ति को क्षपयति 1 146 It विशेषार्थ क्षुधा तो मुंहफाड़े खड़ी हो और भोजन बहुत अल्प दिया जाय तो वह (शरीर की शक्ति को क्षीण करती है ।। दोनों ही ओर से भोजनागार आदि की व्यवस्था समयानुसार और शक्ति के अनुसार होनी चाहिए 1146 ॥ अन्वयार्थ :- ( अति + अशितुः) प्रमाणाधिक भोजन ( दुःखेन) कठिनाई से (अन्नपरिणामः) परिपाक - पाचन होता है। विशेषार्थ :- जो पुरुष भूख से अधिक भोजन करता है उसका पाचन बराबर नहीं हो पाता । फलत: अजीर्णादि रोग बृद्धिंगत होते हैं । अतएव सीमित भोजन ही करना चाहिए जिससे कि परिपाक में कठिनाई न हो । 47 | - अन्वयार्थ :- ( श्रमार्तस्य) परिश्रम करने पर तत्काल ( पानम्) पीना (च) और (भोजनम्) भोजन करना (ज्वराय) ताप के लिए (वा) अथवा (छर्दये) वान्ति का कारण होता है । -- विशेषार्थ जो व्यक्ति श्रम करके तुरन्त थकान में ही जलादि पान करता है या भोजन करता है । उसे या तो बुखार - ज्वर हो जाता है अथवा वान्ति-उल्टी हो जाती है। अभिप्राय यह है कि किसी भी कठिन कार्य के करने पर जब तक श्रम दूर न हो, थकान न उतरे तब तक पानी नहीं पीना चाहिए और भोजन भी नहीं करना चाहिए 1148 11 अन्वयार्थ :- ( जिहत्सु ) मलक्षेपक (न) नहीं (प्रस्रोतुम् ) मूत्र ( इच्छु) इच्छुक (न) नहीं (असमञ्जसमन:) चिन्तातुर (च) और (अनपनीय) पिपासु (न) नहीं (पिपासोद्रेक) प्यास से व्याकुल (अश्नीयात्) भोजन करे । विशेषार्थ :- मलमूत्र के वेग को रोकने वाले, पिपासा को रोकने वाले अस्वस्थ चित्त वाले व्यक्ति को उस काल में भोजन नहीं करना चाहिए । अर्थात् प्रथम मल मूत्र की बाधा दूर करे, चित्त को स्वस्थ - सावधान करे और शान्तचित्त से भोजन करे क्योंकि उपर्युक्त दशा में भोजन करने से अनेक प्रकार के रोगादि उत्पन्न हो जाते #1149 || अन्वयार्थ :- (भुक्त्वा ) भोजन करके (सद्य:) तत्काल ( व्यायामव्यवायाँ) व्यायाम व मैथुन करना (व्यापत्तिः) विपत्ति ( कारणम्) कारण है ।। 462
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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