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________________ नीति वाक्यामृतम् विशेषार्थ :- भोजन करने के बाद शीघ्र ही कसरत और मैथुन सेवन (रतिक्रीड़ा) नहीं करना चाहिए । क्योंकि इससे रोगादि विपत्तियों का होना संभव है 150॥ अन्वयार्थ :- (आजन्मसात्म्यम्) जन्म से अभ्यस्त को (विषम) जहर (अपि) भी (पथ्यम्) पथ्य [भवति] हो जाता है । विशेषार्थ :- जन्म से ही विष भक्षण का अभ्यास करने पर वह विष मारण कार्य न कर साधक हो जाता है । अर्थात् विष भी पथ्य-स्वास्थ्यवर्द्धक हो जाता है ।।51 || अन्वयार्थ :- (असात्म्यम्) आत्मसात् नहीं होने पर (अपि) भी (पथ्यम्) पथ्य (सेवेत) सेवन करे (पुन:) फिर (न) नहीं (सात्म्यम्) अभ्यस्त (अपध्यम्) अयोग्य । विशेषार्थ :- पूर्व से अभ्यास न होने पर मनुष्य को पथ्यकारक-पचने योग्य भोजन ही करना चाहिए । परन्तु पूर्वाभ्यास होने पर भी अपथ्य-अपचकारी प्रकृति विरुद्ध भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए 152 ।। अन्वयार्थ :- (बलवतः) बलवान (सर्वम्) सभी (पथ्यम्) पथ्य-पचाने योग्य है (इति) यह मान दारकट) हालाहा (न) नहीं (सेवेत) सेवन करे ।।531 विशेषार्थ :- बलवान शक्तिशाली मनुष्य को यह विचार कर कि "मैं महाशक्तिशाली हूँ सब कुछ पचा सकता हूँ" विष-जहर नहीं खाना चाहिए ।।53 ॥ अन्वयार्थ :- (कदाचित्) कभी-कभी (सुशिक्षितः) जानकार (अपि) भी (विषतंत्रज्ञः) विष प्रयोग वेत्ता (नियत) मर (एव) ही जाता है (विषात्) विषभक्षण से । विशेषार्थ :- विष की शक्ति को नष्ट करने की विद्या का पारङ्गत-कुशलव्यक्ति भी क्वचित् कदाच चूक जाता है अर्थात् उसका सेवन कर मरण को प्राप्त हो जाता है ।।54।। अन्वयार्थ :- (अतिथिषु) मेहमानों (आश्रितेषु) नौकरादि को (संविभज्य) देकर (च) और (स्वयम्) अपने आपं (आहरेत्) भोजन करे ।55॥ विशेषार्थ :- सत्पुरुष का कर्त्तव्य है कि प्रथम अतिथियों को भोजन करावे, पुनः सेवकों को भोजन दे पुनः स्वयं भोजन करे ।।55 | 10॥ सुखप्राप्ति का उपाय : देवान् गुरुन् धर्म चोपचरन्न व्याकुलमतिः स्यात् ।।56।। अन्वयार्थ :-(देवान्) भगवान (गुरुन्) गुरुओं (च) और (धर्मम्) धर्म का (उपचरन्) आचरण कर्ता (व्याकुलमतिः) दुःख (न) नहीं (स्यात्) होगा । विशेषार्थ :- सच्चे-निर्दोष देव, शास्त्र व धर्म का उपासक दुर्बुद्धि, विपरीत कार्य करने वाला क्या दुखी H नहीं होता। अर्थात सुखेच्छ को देव, गुरु और धर्म की शरण में ही रहना चाहिए 156॥ 463
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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