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________________ नीति वाक्यामृतम् पक्का-परिपूर्ण जो सीझा न हो अथवा आवश्यकता से अधिक पका हो, 5. नीरस-रुखा-सूखा 6. भोजन का समय उलंघन किया हुआ - ठंडा, 7. वासी आदि भोजन कभी नहीं करना चाहिए। अर्थात् स्वास्थ्य के इच्छुक पुरुषों को उपर्युक्त भोजन नहीं करना चाहिए।७।। अन्वयार्थ :- (फल्गु) व्यर्थ वाद-विवाद (भुजम्) भोजन के प्रतिकूल (अननुकूलम्) विरुद्ध (क्षुधितम् भूखे होने पर (अतिक्रूरम्) अतिक्रोधित (च) और (भुक्तिसमये) भोजन के समय (सान्निधापयेत्) स्थिर करें 1400 विशेषार्थ :- स्वास्थ्य चाहने वाले व्यक्ति को हंसी-मजाक नहीं करते हुए शुद्ध मौन से उष्ण, स्निग्ध, जठराग्नि के अनुकूल, पूर्व भोजन के पच जाने पर किया हुआ, इष्ट देश में वर्तमान व कामक्रोधादि दुर्भावों को उत्पन्न करने वाला आहार न अत्यन्त शीघ्रता से और न अत्यन्त विलम्ब से करे ।। अभिप्राय यह है कि भोजनकाल में व्यर्थ के लोगों से सम्पर्क न कर एकाग्रचित, शान्तभाव से मौनपूर्वक भोजन करे |40॥ भोजन के समय नीतिवान पुरुष अपने पास आहार काल में अल्पभोजी, अपने से वैर-विरोधी करने वाले, बुभुक्षित व दुष्ट व्यक्ति को नहीं बैठाये । क्योंकि इनके रहने से भोजन अरुचिकर हो जायेगा, मन उद्विग्न होगा 1140M ___ अन्वयार्थ :- (गृहीतग्रासेषु) कवल ग्रहण करने पर (आत्मनः) अपनी थाली या भोजन पात्र (सहभोजिषु) साथ में भोजन करने वाले के मध्य में (परिवेषयेत्) स्थापित करे 141 विशेषार्थ :- भोजन करने वाला व्यक्ति भोजन करते समय अपनी भोजनथाली को सहयोगी-सहभोजी व्यक्तियों के मध्य में स्थापित करे । मध्य में थाली रहने से सभी सुखपूर्वक भोजन कर सकेंगे 141 || अन्वयार्थ :- (तथा) उस प्रकार (भुजीत) भोजन किया हुआ (यथासायम्) इस सन्ध्या (च) और (अन्येधुः) दूसरे दिन (वन्हि:) जठराग्नि (न) नहीं (विपद्यते) नष्ट होती ।। विशेषार्थ :- मनुष्य को चाहिए कि वह इस प्रकार भोजन करे कि उसकी जठराग्नि शाम को या दूसरे दिन भी मन्द नहीं होने पावे ।। अभिप्राय यह है कि अपनी पाचनशक्ति के अनुसार उचित भोजन करे।42 ।। अन्वयार्थ :- (भुक्ति परिमाणे) भोजन की मात्रा में (सिद्धान्तः) सिद्धान्त (न) नहीं (अस्ति) है 1143॥ विशेषार्थ :- प्रत्येक मानव की जठराग्नि भिन्न-भिन्न होती है । अतः कोई एक निश्चित सिद्धान्त भोजन के प्रभाण सम्बन्धी नहीं हो सकता है 143 ॥ निश्चय से मनुष्य की उत्तम, मध्यम, जघन्य जठराग्नि के अनुसार ही भोजन की मात्रा भी उत्तम, मध्यम, जघन्य रूप होती है 1431 (वन्हि) जठराग्नि (अभिलाषयत्तम्) अभिलाषा (हि) निश्चय से (भोजनम्) भोजन की व्यवस्था [अस्ति] विशेषार्थ :- जठराग्नि के अनुकूल यथोचित यथायोग्य मात्रा में भोजन करना चाहिए ।14 ॥ चरक संहिता में भी लिखा है "आहार मात्रा पुनरग्निबलापेक्षिणी" अर्थात् आहार-भोजन का प्रमाण मात्रा मनुष्य की जठराग्नि की उत्कृष्ट, मध्यम् व जघन्य शक्ति पर निर्भर करती है ! 461
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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