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________________ [नौति वाक्यामृतम् । __जो व्यक्ति देव, गुरु, शास्त्र और धर्म की उपासना के उद्देश्य से स्नान नहीं करता उसका स्नान पक्षियों की भांति निरर्थक है ।26|| क्षुधापीड़ित व तुषित-प्यासे व्यक्ति को तैलादि मालिश कर स्नान करने से लाभ होता है ।27। जिस व्यक्ति को सूर्य की ताप से सन्तप्त हुआ है उसे जल में प्रविष्ट होकर स्नान करता है इससे उसके नेत्रों की ज्योति मन्द हो जाती है । और शिर में पीड़ा हो जाती है । अभिप्राय यह है कि गर्मी-धूप से पीड़ित व्यक्ति को शीघ्र स्रान नहीं करना चाहिए 128 ॥ आहार सम्बन्धी स्वास्थ्योपयोगी सिद्धान्त : बुभुक्षा कालो भोजनकालः ।।29 ।।अक्षुधितेनामृतभप्युपभुक्तं च भवति विषम् ।।०॥जठराग्नि वनाग्निं कुर्वन्नाहारादौ सदैव वाकं बलयेत् ।।31 ॥ निरन्नस्य सर्व द्रवद्रव्यमग्निं नाशयति ।B2॥अतिश्रमपिपासोपशान्तौ पेयायाः परं कारणमस्ति ॥33॥ घृताधरोत्तरभुजानोऽग्निं दृष्टिं च लभते 184॥ सकृद्भरि नीरोपयोगो वहिमवसादयति 185॥ क्षुत्कालातिक्रमादन्नद्वेषो देहसादश्च भवति 186॥ विध्याते वही किं नामेन्धनं कुर्यात् 187 ॥ योमितं भुंक्ते सबहुं भुक्ते ।।38 ॥अप्रमितमसुखं विरुद्धमपरीक्षितमसाधुपाकमती तरसमकालं चान्नं नानुभवेत् 139॥ फल्गुभुजमननुकूलं क्षुधितमतिकूरं च न भुक्तिसमये सन्निधापयेत् ॥10॥ ग्रहीत ग्रासेषु सहभोजिष्वात्मन: परिवेषयेत् 141॥ तथा भुञ्जीत यथासायमन्येधुश्च न विपद्यते वह्निः ॥2॥न भुक्तिपरिमाणे सिद्धान्तोऽस्ति 143॥ वन्यभिलाषायत्तं हि भोजन 144॥ अतिमात्रभोजी देहमग्निं च विधुरयति ।।45 ॥ दीसो बहिर्ल घु भोजनातलं क्षपयति 146 ॥ अत्यशितुर्दुः खेनानपरिणामः 147 ॥ श्रमार्तस्य पानं भोजनं च ज्वराय छर्दये वा 148॥ न जिहत्सुर्न प्रस्त्रोतुमिच्छुनसिमञ्जसमनाश्च नानपनीय पिपासोद्रेकमश्नीयात् ।।49 ॥ भुक्त्वा व्यायामव्यवायी सद्यो व्यापत्तिकारणम् ।।500 आजन्मसात्म्यं विषमपि पथ्यम् ॥1॥ असात्म्यमपि पथयं सेवेत न पुनः सात्म्य मप्यपथय ।।52 |सर्व बलवतः पथ्यमिति न कालकूट सेवेत ।।53 ॥सुशिक्षितोऽपि विषतंत्रज्ञो प्रियत एव कदाचिद्विषात् ॥14॥ संविभग्यातिथिष्वाश्रितेषु च स्वयमा हरेत् ।।5।। विशेषार्थ :- जिस समय भूख-क्षुधा लगे वह समय भोजन करने का समय समझना चाहिए । अभिप्राय यह है कि विवेकी, धर्मात्मा पुरुष अहिंसाधर्म परिपालनार्थ क्षुधा लगने पर दिन में ही यथायोग्य शुद्ध और प्रकृति के अनुकूल भोजन करे । रात्रि में कदापि भोजन न करे । तथा बिना भूख लगे भी भोजन नहीं करना चाहिए 129 | चरक विद्वान ने भी लिखा है : आहार जातं तत् सर्वमहितायोपदिशते । 1/2 यच्चाऽपि देशकालग्निमात्रासात्म्यानिलादिभिरित्यादि । यच्चानुत्सृज्य विण्मूत्रं भुङ्क्ते यश्चाबुभुक्षितः । 1/2 तच्चा क्रम विरुद्धं स्यात् ॥ चरकसंहिता सूत्र स्थान अ. 26 ॥ अर्थ :- देश, काल, अग्नि, मात्रा, प्रकृति, संस्कार, वीर्य, कोष्ठ, अवस्था व क्रमादि से विपरीत भोजन करना + अहितकारी होता है, अनेक रोग उत्पन्न करता है । जो व्यक्ति कार्य विशेष होने पर मल-मूत्र के वेग को रोक कर 459
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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