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________________ - श्रीति वाक्यामृतम् प्रवेश करे ।।३ ॥ {क्षीणः) शक्तिहीन (जीर्णः) वृद्ध रोगी (वृद्धः) बूढे (वातकि ) वकवादि रोगग्रस्त (रूक्षभोजिभ्यः) रुखा भोजन करने वालों के (अन्यत्र) सिवाय अन्य लोगों को (गो सर्गे) गोधूलि बेला में (व्यायामः) व्यायाम करना (रसायनम्) रसायन [अस्ति] है ।।14 ॥ (शरीर आयास जननी) शरीर में श्रम उत्पन्न करने वाली (क्रिया) कार्य (व्यायामः) व्यायाम [अस्ति] है ।15।। (शस्त्र वाहन अभ्यासेन) शस्त्र व वाहन के अभ्यास से (व्यायामम्) व्यायाम को (सफलयेत्) सार्थक करे ।।16 ॥ (आदेहः) शरीर भर में (स्वदेम्) पसीना आये (व्यायामकालम्) उतना व्यायाम का समय (आचार्याः) आचार्य (उशन्ति) कहते हैं 17 ॥ (बलातिक्रमेण) शरीर शक्ति का उलंघन कर (व्यायामः) व्यायाम (काम् नाम्) किसको (आपदंम्) आपत्ति (न) नहीं (जनयति) उत्पन्न करती है ? 1178॥ (अव्यायाम) व्यायाम नहीं करने वाले (शीलेषु) स्वभावी को (अग्निदीपनम्) जठराग्नि को उत्तेजना (उत्साहः) कार्यतत्परता (च) और (देदाढ्यम्) शरीर वृद्धि या पुष्टि (कुतः) कहाँ है ? विशेषार्थ :- शरीर एक मशीनरी है । इसके कल-पुर्जे स्वाभाविक रुप से कार्य करते हैं । इनमें विघ्न डालने से या इनके नियमों का व्यतिक्रम करने से अनेक प्रकार की विडम्बना संभव हैं । शरीर के स्वाभाविक कार्य हैं शुक्र-वीर्यप्रवाह, मलक्षेपण, मूत्र स्रवण, वायुप्रवहण आदि । इनको यथासमय करना ही चाहिए । इनके वेग का अतिक्रमण कभी भी नहीं करना चाहिए । पूर्ण अवरोध की तो बात क्या है ? यदि समय का भी उल्लंघन f को इनका वेग रोक दिया तो नाना प्रकार के भयङ्कर रोग खड़े हो जायेंगे । यथा अश्मरी-पथरी, भगंदर (गुदास्थान में भरियाफूटा फोड़ा), गुल्म, बवासीर, अजीर्ण, लीवरवृद्धि आदि । अभिप्राय यह है कि स्वस्थ शरीर के इच्छुकजनों को उपर्युक्त शरीर क्रियाओं में कालव्यति क्रम व अवरोध उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए 111॥ चरक विद्वान ने भी कहा है : न वेगान् धारयेद्धीमान् जातान् मूत्रपुरीषयोः न रेतसो न वातस्य न छदर्याः क्षवथोर्न च ।।1।। अर्थ वही है। विशेष यह है कि बुद्धिमान पुरुष को मल-मूत्र, वीर्य, वायु, वमन, छींक, उद्गार, जंभाई, भूख, प्यास, नींद और परिश्रमजन्य श्वासोच्छ्वास के वेगों को रोकना नहीं चाहिए । क्योंकि मूत्र का वेग रोकने से गुदा और जननेन्द्रिय में पीड़ा, पेशाब करने में कष्ट, शरीर पीड़ा होती है, शरीर झुक जाता है, तथा अण्डकोषों की वृद्धि होती है ।। मल का वेग रोकने से पक्वाशय और शिर में पीडा आदि रोग होते हैं । वीर्य के वेग को रोकने से जननेन्द्रिय व अण्डकोषों में पीड़ा व पेशाब का रुक जाना आदि उपद्रव होते हैं । अत: स्वास्थ्य के अभिलाषियों को उपर्युक्त वेग को रोकना नहीं चाहिए in2 || शौच के पश्चात् गुदा और हस्त-पाद आदि की शुद्धि मिट्टी-मुल्तानी माटी के द्वारा हाथ व गुदास्थान की शुद्धि करना चाहिए तथा अन्त में सुगन्धित द्रव्यों से गुदादि स्थानों से शुद्धि करना चाहिए ताकि दुर्गन्ध निकल जाय। इससे चित्त प्रसन्न होता है |n2॥ बाहर से भ्रमणकर या व्यापारादि से आया हुआ प्राणी-मानव गृह में प्रवेश करने के पूर्व आचमन (कुरला) करके ही प्रवेश करे । अर्थात् बिना सुख शुद्धि के गृह प्रवेश कभी नहीं करे ।13॥ 456
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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