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________________ नीति वाक्यामृतम् यथार्थ तत्व ग्राहिणी बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं । ॥ जिस समय सूर्य का उदय होता है और अस्त हो उस समय निद्रा नहीं लेना चाहिए । क्योंकि ये संध्याकाल हैं । इस समय सोने से धर्मकार्य-सामायिकादि का यथाकाल सम्पादन नहीं हो सकेगा। सामायिकादि आत्मशुद्धि के साधन हैं, सोकर इनका नाश नहीं करना चाहिए | 3 | प्रात: काल निद्रा तजने पर अपना मुख घृत में अथवा दर्पण में देखना चाहिए ।4। विवेकी मनुष्य को निद्रातजने पर प्रातः प्रथम नपुंसक व विकलाङ्ग अङ्गहीन का मुख नहीं देखना चाहिए ।। जो व्यक्ति तीनों सन्ध्यायों में मुख शद्धि कर सामायिकादि अनुष्ठान करते हैं उन पर चौबीसों तीर्थकर-ऋषभादि अनुगृह करते हैं । अर्थात् भगवान सर्वज्ञ का ध्यान आत्मध्यान है । आत्मध्यानी सतत् सुखी रहता है ।।। जो व्यक्ति प्रतिदिन दातुन नहीं करता उसकी मुख शुद्धि नहीं होती । अतः सुस्वस्थ शरीर व सौन्दर्य चाहने षों को प्रातः काल एवं सायंकाल दातन करना चाहिए । साथ ही इस बात का ध्यान रक्खें कि मसडों में कष्ट घाव न हों । तथा दातुन नीमादि कटु रस वाली हो । इस प्रकार करने से मुख में दुर्गन्ध नहीं आयेगी, दाँतों व मसूड़ों सम्बन्धी रोग भी नहीं होंगे । दाँत भी सुन्दर व चमकीले होंगे ।। अतः प्रतिदिन दन्तधावन करना चाहिए 17॥ शारीरिक कुछ क्रियाएँ अनिवार्य होती हैं । यथा मल क्षेपण, मूत्र त्यागनादि ये स्वाभाविक क्रियाएँ हैं । किसी भी कार्य में आसक्ति नहीं करना चाहिए । कैर.. ही आवश्य। .र्य सदों रहे, परन्तु मनत्र निरोध नहीं करना चाहिए ॥ नीतिवान व विवेकी पुरुष को समुद्र में कभी भी स्नान नहीं करना चाहिए । भले ही युगों से उसकी तरंगें स्थिर क्यों न हो गई हों तो भी उस खारा-नमकीन पानी में स्नान करना उचित है । अत: तरंगें बन्द होने पर सागर में कदाऽपि स्नान नहीं करना चाहिए ।।9 ॥ स्वस्थ व रोगरहित शरीर की इच्छा करने वालों को वेग (मलमूत्रादि का वेग) व्यायाम, नींद, सान, भोजन और शुद्ध-स्वच्छ हवा में टहलना-घूमना आदि दैनिक अनिवार्य कार्यों में विलम्ब नहीं करना चाहिए । अर्थात् उपर्युक्त कार्यों को यथाकाल करना चाहिए Inor वीर्य व मलमूत्रादि रोकने स हानि शौच और गृह प्रवेश विधि व व्यायाम : शुक्रमलमूत्र मरुद्वेग संरोधोऽश्मरी भगन्दर-गुल्मार्शसां हेतुः (11॥ गंधलेपावसानं शौचमा रेत ।।12।।बहिरागतो नानाचाम्य गहं प्रविशेत ॥३॥गोसर्गे व्यायामो रसायन मन्यत्र क्षीणाजीर्णवनवातकि रुक्षभोजिभ्यः ।।14। शरीरायास जननी क्रिया व्यायामः ॥शस्ववाहनाभ्यासेन व्यायामं सफलयेत् ।16॥ आदेह स्वेदं व्यायामकालमुखत्याचार्यः ।।17॥ बलातिक्रमेण व्यायामः का नाम नापदं जनयति 18॥ अव्यायाम शीलेषु कुतोऽग्नि दीपनमुत्साहो देहदाढ्यं च 19॥ __ अन्वयार्थ :- (शुक्रमलमूत्रमरुवेगः) वीर्य, शौच (मलत्याग) पेशाब और वायु के वेग (रोध:) रोकना, (अश्मरी) पथरी (भगन्दरः) भगन्दर (गुल्म) गुल्म (आर्शसाम्) बवासीर के (हेतुः) कारण [सन्ति] हैं ||1|| (शौचम्) मलत्याग के (गंधलेपः) सुगन्धी द्रव्य का (अवसाधनम्) अन्त में (आचरेत्) प्रयोग करे ।।12॥ (बहिर आगतः) बाहर से आये हुए को (अनाचाम्य) आचमन (कुरला) किये बिन (गृहम्) घर में (न) नहीं (प्रविशेत) का | 455
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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