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________________ નંત પાતરાજ્ 1. राजपुत्र, 2. राजा का भाई, 3. पटरानी के अतिरिक्त अन्य रानी का पुत्र, 4. राजा का चाचा, 5. राजा के वंश का पुत्र, 6. राजकुमारी का पुत्र, 7. और बाहर से आया हुआ राजा के पास रहने वाला दत्तक पुत्र आदि । इनमें से सर्व प्रथम राजपुत्र राजा होने का अधिकारी है, उसके नहीं होने पर भाई आदि क्रमशः राज्य का अधिकारी होता है । अतः योग्यतानुसार और समयानुसार इनमें से किसी को भी राजा बनाना चाहिए 1188 ॥ शुक्र विद्वान का भी यही कथन है : सुत सोदर सापत्नपितृव्या दौहित्रागन्तुका योग्यापदे राज्ञो गोत्रिणस्तथा I यथाक्रमम् ॥11॥ अर्थ उपर्युक्त ही है । जो पुरुष पूर्व में पाप क्रिया में प्रवृत्ति कर चुका हो, या वर्तमान में पापों में फंसा हो, अथवा भविष्य में पापाचार, अत्याचार, अनाचारादि करेगा, इसके निम्न प्रकार के चिन्हों को देखकर न्यायाधीशों को निर्णय करना चाहिए : 1. जिसका चेहरा नीला, उदास या काला दिखाई पड़ता हो, 2. जिसके मुख से स्पष्ट वचन नहीं निकलता हो । 3. न्यायालाय में प्रश्न पूछे जाने पर जो उत्तर देने में असमर्थ हो । 4. जिसे लोगों को देखकर पसीना आता हो, 5. जो बारम्बार जंभाई लेता हो, 6. जो अत्यन्त कांपता हो, 6. जो पैरों से लड़खड़ा रहा हो चलने से डगमग पाँव पड़ रहे हों, 7. जो अन्य लोगों का मुख बार-बार देखता हो, 8. जो अत्यन्त जल्दबाज हो, 9. जो स्थिरता से कार्य न करता हो अथवा जो स्थिर भाव से जमीन पर न बैठता हो, एक स्थान पर स्थिर न रहता हो । शुक्र का भी यही अभिप्राय है : आयाति स्खलियैः पादैः सभायां पापकर्मकृत् । प्रस्वेदनेन संयुक्तो अधोदृष्टिः सुम्र्म्मनाः ॥17॥ यही अभिप्राय है । ।। इति श्री राजरक्षा समुद्देश ॥ इति श्री परम पूज्य प्रातः स्मरणीय, विश्ववंद्य, चारित्रचक्रवर्ती, मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट् महातपस्वी, वीतरागी दिगम्बर जैनाचार्य श्री 108 आचार्य आदिसागर जी महाराज अंकलीकर के पट्टशिष्य परमपूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि, समाधिसम्राट् उद्भटविद्वान आचार्य श्री 108 महावीरकीर्ति जी महाराज के संघस्था, प.पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ, सन्मार्ग दिवाकर वात्सल्य रत्नाकर श्री 108 आचार्य विमलसागर जी महाराज की शिष्या ज्ञान चिन्तामणि प्रथम गणिनी आर्यिका 105 विजयामती जी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका का यह चौबीसवां राजरक्षासमुद्देश नामा समुद्देश परमपूज्य सिद्धान्त चक्रवर्ती, वात्सल्यमूर्ति, उग्रतपस्वी सम्राट् वात्सल्य रत्नाकर, श्री " अंकलीकर" के तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री 108 सन्मतिसागर जी महाराज के प्रसाद से उन्हीं के चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ ।। इत्यलम् ॥ ॐ नमः ॐ शान्तिः ।।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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