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नीति वाक्यामृतम् ।
येषां पिता बहे दत्र राज्यभारं सुदुर्बहम् ।
राजपुत्रा सुखाड्याश्च ते भवन्ति सदैवहि ।।1।। अभिप्राय यह है कि पिता के राज्य में पुत्रों को कोई चिन्ता नहीं होती है । इसलिए वे निश्चिन्त होने से सुखी रहते हैं । कहा भी है :
चाह गई चिन्ता मिटी मनुआ वे परवाह ।
जिनको कुछ न चाहिए सो ही शहंशाह 1184॥ उस राज्य सम्पदा से क्या प्रयोजन जो प्रारम्भ में तनिक सुख देकर अन्त में अनेकों विपत्तियों-कंटकों को उत्पन्न कर दे? अभिप्राय यह है कि क्षणिक सुखदायक सामग्री से यदि भविष्य में भयंकर आपत्ति की संभावना हो तो उसे ग्रहण ही न करे |85॥ कौशिक विद्वान ने भी कहा है :
अल्प सौरहाका माल बहुअरले राप्रदा भवेत् ।
वृथा सान परिज्ञेया लक्ष्म्याः सौख्यफलं यतः ।। जिस पदार्थ से अल्प सुख व बहक्लेश हो उसे व्यर्थ समझना चाहिए । क्योंकि लक्ष्मी का फल सुख होता है । यदि दुःख प्राप्त हो तो वह किस प्रकार ग्राह्य होगी? कदाऽपि स्वीकारने योग्य नहीं हो सकती 185 1
प्रत्येक कार्य के पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य होना चाहिए । निष्प्रयोजन कार्य का प्रारम्भ करना योग्य नहीं। क्योंकि उससे आगामी आने वाला कोई भी सुखकर फल प्राप्त नहीं होता । निष्फल कार्यारम्भ मूर्खता का द्योतक है । यथा भूषा को कूटना, जल को बिलोना व तैल को पेलना । क्या श्रम मात्र का कष्ट नहीं है । है ही । उसके करने से लाभ कुछ नहीं मिलता । अतएव विवेकीजनों को भले प्रकार सोच-विचार कर, भावी फल को दृष्टि में रखकर कार्यारम्भ करना चाहिए ।। तभी वह सुख-साता प्राप्त कर सकता है । कहावत है :
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय
काम विगाडे आपनो जग में होय हँसाय |1॥ प्रत्येक काय स्वयं का अपने ही करने पर शोभा पाता है । जो मनुष्य पराये दूसरे के खेत को स्वयं जोतता है या दूसरे से जुतवाता है, उसका परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । क्योंकि इससे उसे कुछ लाभ नहीं होता, अपितु जिसका खेत है उसे ही उसमें होने वाली उपज का लाभ होगा । जिसका स्वामित्व होता है । वही भोक्ता कहलाता है । कौशिक विद्वान का उद्धरण भी यही है :
पर क्षेत्रे तु यो बीजं परिक्षिपति मन्द धीः ।
परिक्षेपयतो वापि तत्फलं क्षेत्रपस्य हि ।।1॥ राजा के अभाव में अर्थात् मृत्यु हो जाने पर किसे राजा बनाना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर का समाधान निम्न प्रकार है :
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