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________________ नीति वाक्यामृतम् अर्थात् अनेकों उपायों से प्राप्त पुत्र के प्रति माता-पिता अहित कार्य नहीं कर सकते ।।।। जो व्यक्ति दूसरे को कष्ट देता है, बध, बन्धनादि करता है, निर्दोषों का च्छेदन-भेदन, मारन-ताड़न आदि करते हैं। उनके इन कर्मों का कटुफल उसे ही भोगना पड़ता है । अतः तत्त्वज्ञानी, परम वीतरागी होने का इच्छुक सम्यक्त्वी क्या दूसरों को सतायेगा ? नहीं, कदापि नहीं । अभिप्राय यह है कि सत्पुरुषों, सदाचारियों को पर को कष्टदायक कार्य नहीं करना चाहिए | 183 । गर्ग विद्वान ने कहा है : अनिष्टमपि कर्तव्य कर्म पुंभिर्विचक्षणः । तस्य चेद्धन्यमानस्य यजातं तस्वयंभवेत् ।।1।। युवराजों के सुख का कारण, दूषित राजलक्ष्मी, निष्प्रयोजनकार्य से हानि, उसका दृष्टान्त राज्य के योग्य उत्तराधिकारी व अपराधी की पहिचान : ते खलु राजपुत्राः सुखिनो येषां पितरि राजभारः ।।84 ॥ अलं तया श्रिया या किमपि सुखं जनयन्ती व्यासंगपरम्पराभिः शतशो दुःखमनुभाजगति (RE निकलोडि आरम्भः काय नामोदर्केण सुखावहः 1186परक्षेत्रं स्वयं कषतः कर्षापयतो वा फलं पुनस्तस्यैव यस्य तत्क्षेत्रम् 187 ॥ सुतसोदर सपत्न पितृव्याकुल्यदौहित्रागन्तुकेषु पूर्वपूर्वाभावे भवत्युत्तरस्य राज्यपदावाप्ति 1188॥शुष्कश्यामामुखता वाक्स्तम्भः स्वेदो विजृम्भणमतिमात्र वेपथुः प्रस्खलनमास्य प्रेक्षणमावेगः कर्मणि भूमौ धानवस्थानमिति दुष्कृतं कृतः करिष्यतो वा लिंगानि ।89॥ अन्वयार्थ :- (ते) वे (राजपुत्राः) राजकुमार (खलु) निश्चय से (सुखिनः) सुखी हैं (येषाम्) जिनका (राजभार:) शासन भार (पितरि) पिता के ऊपर (अस्ति) है 184॥ (तया) उस (श्रिया) लक्ष्मी से (अलम्) वस हो (या) जो (किम्) कुछ (अपि) भी (सुखम्) सुख (जनयन्ती) उत्पन्न करती हुयी (शतशः) सैंकडों (व्यासंगपरम्पराभिः) व्यसनों-कष्टों द्वारा (दुखम्) दुखों को (अनुभावयति) अनुभव कराती है ।185॥ (निष्फल:) प्रयोजनहीन (आरम्भः) कार्यारम्भ (हि) निश्चय से (कस्यनाम) किसको (उदण) भविष्य में (सुखावहः) सुखदायी होगा? नहीं । 86 1 (परक्षेत्रम्) दूसरे के खेत को (स्वयम्) अपने आप (कषत:) जोते (वा) अथवा (कर्षापयतः) जुतवाये (पुन:) पश्चात् (फलम्) फल (तस्यैव) उसीका ही होगा (यस्य) जिसका (तत्) वह (क्षेत्रम्) खेत [अस्ति] है । 87 1 (सुतः) पुत्र (सोदरः) भाई (सपन:) दूसरी रानी से उत्पन्न (पितृव्यः) चाचा (कुल्य:) राजवंशी (दौहित्रः) पुत्री का पुत्र (आगन्तकेषु) दत्तकों में से (पूर्व पूर्व) पहले-पहले के (अभावे) अभाव होने पर (उत्तरस्य) उत्तरवर्ती को (राज्यपदस्य) राजपद की (अवाप्तिः) प्राप्ति होती है ।188 (शुष्क:) सूखा (श्यामः) काला (सुखता) मलिनता चेहरे पर (वास्तम्भः) स्खलति बोलना (स्वेदः) पसीना आना, (विजृम्भणम) शरीर भर में व्याप्त हो (अतिमात्रम्) अत्यन्त-असीम (वेपषुः) कांपता है (प्रस्खलनम्) रुक-रुक कर (आस्य:) मुख को (प्रेक्षणम्) फैलाना जभाई (आवेगः) जल्दबाज (कर्मणि) कर्मों में (भूमौ) भूमि पर (वा) अथवा (अनवस्थानम् ) या तत्र बैठता हो (इति) इस प्रकार ये (दुष्कृत) खोटे कर्म (कृतः) करचुका (वा) अथवा (करिष्यति) करेगा इसके (लिंगानि) चिन्ह हैं ।89॥ जिन युवराजों के पिता स्वयं राजशासन करते हैं वे सुखी रहते हैं । क्योंकि राज-काज सम्बन्धी सभी भार से वे मुक्त रहते हैं । राज शासन कार्य कठिन होता परन्तु वे निश्चिन्त रहते हैं । अतएव पिता के राजा होने पर । राजपुत्रों का जीवन आजादी का होने से सुखी होता है ।184 || आत्रि का भी यही अभिप्राय है : 07॥ 451
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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