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________________ नीति वाक्यामृतम् कुबड़ा, भयानक व्याधियों से पीड़ित भी हो तो उसे अनुराग से गले लगाती हैं । क्योंकि उससे धन प्राप्त होगा | अभिप्राय यह है कि वेश्याओं पर विश्वास नहीं करना चाहिए । सत्पुरुषों को उनसे सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहिए | 147 || भारद्वाज विद्वान ने भी लिखा है : न सेवन्ते नरं वेश्याः सेवन्ते केवलं धनम् । धनहीनं यतो मर्त्यं संत्यजन्ति च तत्क्षणात् ॥ 11 ॥ वेश्या सेवी अविवेकी, अज्ञानी व दुर्मति है । वह मूर्ख स्वयं का धन उसे अर्पण कर देता है परन्तु वह उसे उपेक्षा से ही देखती हैं, धन समाप्त होते ही उसे धक्का दे बाहर कर देती है । क्या वह सुखी होगा ? कभी नहीं । इसीलिए नीतिकारों ने कहा है कि जो पुरुष अपना धन वेश्या को देता है और दूसरों का धन भी उसे दिलाकर धनाढ्य बनाता है वह पशु से भी बढ़कर पशु है क्योंकि अपनी क्षति के साथ दूसरों की भी आर्थिक क्षति के साथ यश, सम्मान की भी क्षति करता है 114953 बल्लभदेव विद्वान ने भी कड़ी आलोचना की है : आत्मवित्तेन यो वेश्यां महार्थां कुरुते कुधीः । अन्येषां वित्तनाशाय पशूनां पशुः सर्वतः ॥ 1 ॥ वेश्यागामी पशुओं का शिरोमणि पशु है ।।1 ॥ राजाओं को वेश्याओं का संग्रह करना बुरा नहीं, परन्तु वह केवल अपनी विजय की आकांक्षा से गुप्तचरों के रूप में ही उन्हें रखना चाहिए । इससे वह शत्रुओं के उपद्रवों से प्रजा - राष्ट्र की रक्षा में समर्थ होता है । परन्तु विजिगीषु विजयलाभ होने पर उनका सम्बन्ध त्याग दे | 151 ॥ कहावत है “स्वभावोऽन्यथाकर्तुं ब्रह्माऽपि न पायेत" स्वभाव का परिवर्तन अति दुर्लभ ही नहीं असंभव भी होता है । वेश्या को कितने ही सुख-साधन उपलब्ध करा दिये जांये तो भी वह पर पुरुष सेवन रूप स्वभाव का त्याग नहीं करती 1152 ।। गुरु विद्वान ने भी कहा है : यद्वेश्या लोभसंयुक्ता स्वीकृताऽपि नरोत्तमैः । सेवयेत्पुरुषानन्यान् स्वभावो दुस्त्यजो यतः ।। 1 ॥ प्रकृति निर्देश : या यस्य प्रकृतिः सा तस्य दैवेनापि नापनेतुं शक्येत ||53|| सुभोजितोऽपि श्वा किमशुचीन्यस्थीनि परिहरति 11541 न खलु कपिः शिक्षाशतेनापि चापल्यं परिहरति । 155॥ इक्षुरसेनापि सिक्तो निम्बः कटुरेव ||56|| अन्वयवार्थ :- (यस्य) जिसकी (या) जैसी (प्रकृतिः) स्वभाव है (सा) वह (तस्य) उसकी (दैवेन) देव द्वारा (अपि) भी (अपनेतुम् ) दूर करने को (न) नहीं (शक्येत्) समर्थ होता है |53|| (सुभोजितः ) सम्यक् भोजन कराने पर (अपि) भी (श्वा) कुत्ता (किम् ) क्या (अशुचीनि ) अपवित्र (अस्थीनि ) हड्डियों को (परिहरति 440
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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