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________________ भीति वाक्यामृतम् श्रेष्ठ कुलोत्पन्न नारियों को कामशास्त्र का अध्ययन नहीं करना चाहिए । क्योंकि यह दुराचार की भावना M को उभारता है ।।। वेश्यागमन के दुष्परिणाम : अध्रुवेणाधिकेनाप्यर्थेन वेश्यामनुभवन्पुरुषो न चिरमनुभवति सुखम् 14 ॥ विसर्जनाकारणाभ्यां तदनुभवे महाननर्थः ।45 || वेश्यासक्तिः प्राणार्थहानि कस्य न करोति ।।46 ॥ धनमनुभवन्ति वेश्या न पुरुषम् ।।47 ॥ धनहीने कामदेवेऽपिन प्रीतिं वध्नन्ति वेश्याः ।।48 || सपुमान् न भवति सुखी, यस्यातिशयं वेश्यासुदानम् 149 ॥ स पशोरपि पशः यः स्वधनेन परेषामर्थवन्ती करोति वेश्याम् 150 || आचित्तविश्रान्ते वेश्यापरिग्रहः श्रेयान् ।151 || सुरक्षितापि वेश्या न स्वां प्रकृति परपुरुष सेवन लक्षणां त्यजति 1152|| __ अन्वयार्थ :- (अध्रुवेण) स्थायी (अधिकेन) प्रचुर (अर्थेन) धन द्वारा (अपि) भी (वेश्याम्) वेश्या को (अनुभवन्) सेवन करता हुआ (पुरुषः) मनुष्य (चिरम्) अधिक काल (सुखम्) सुख (न) नहीं (अनुभवति) अनुभव करता है 144 ॥ (अकारणाभ्याम) बिना कारण (विसर्जनम) त्यागी को (तदनुभवे) पुनः सेवन से (महान) महान (अनर्थः) अनर्थ [भवति] होता है ।45 ॥ (वेश्यासक्तिः) वेश्या में आसक्ति (कस्य) किसके (प्राणार्थ:) प्राण और अर्थ की (हानिम्) हानि (न) नहीं (करोति) करती है। 46 ॥ (वेश्या) वेश्या (धनम्) धन को (अनुभवन्ति) भोगती है (पुरुषम्) पुरुष को (न) नहीं।17 ॥ (वेश्या) वेश्या (धनहीने) निर्धन (कामदेवे) कामदेव में (अपि) भी (प्रोतिम्) प्रेम (न) नहीं (बध्नन्ति) जोडती है। 48 ।। (स:) वह (पुमान्) पुरुष (सुखी) सुखी (न) नहीं (भवति) होता है (यस्य) जिसके (वेश्यासु) वेश्याओं में (दामन्) देना (आतिशायी) प्रचुर मात्रा में [भवति] होता है 149 ।। (सः) वह पुरुष (पशो:) पशु का (अपि) भी (पशुः) पशु है (यः) जो (स्व) अपने (धनेन) धन द्वारा (परेषाम्) दूसरों से भी (वेश्याम्) वेश्या को (अर्थवन्तीम्) धनवान (करोति) करता है [परेषाम्] दूसरों से कराता है ।150 ।। (आचित्तविश्रान्ते) शत्रु विजयपर्यन्त-चित्तशान्ति तक (वेश्यापरिग्रहः) वेश्याओं का संचय करना (श्रेयान्) कल्याणकारी [अस्ति] है ।151 ॥ (सुरक्षता) रक्षित की गई (अपि) भी (वेश्या) वेश्या (परपुरुषसेवनलक्षणाम्) पर पुरुष के साथ भोग के लक्षण रुप (स्वाम्) अपनी (प्रकृतिम्) स्वभाव को (न) नहीं (त्यजति) छोड़ती है 152 ॥ विशेषार्थ :- विवेकहीन पुरुष अपने प्रचुर धन को वेश्याओं के व्यामोह से उन्हें अर्पण कर देता है परन्तु तो भी वे उसे यथेष्ट अधिक समय तक सुख प्रदान नहीं करतीं। फिर भला धनहीन या अल्पधनी कैसे उनसे सुखी हो सकता है ? नहीं हो सकता । बिना कारण कोई व्यक्ति प्रथम वेश्या का त्याग कर दे (छोड दे) और पुन: उसके यहाँ जावे तो वह उसका सम्मान नहीं करती । यही नहीं उसका अनर्थ भी कर डालती हैं-मार डालती है । अभिप्राय यह है कि वेश्यागामी पुरुष अपने प्राण, धन, यश और मानप्रतिष्ठा मर्यादा को खो देता है 1144-45-46 || नारद विद्वान ने भी वेश्यासक्त को प्राण व धननाशक कहा है : प्राणार्थ हानिरेव स्याद्वेश्यायां सक्तितो नृणाम् । यस्मात्तस्मात्परित्याग्या वेश्या पुंभिर्धनार्थिभिः ॥ वेश्याओं की प्रीति धन से होती है पुरुष से नहीं । क्योंकि निर्धन व्यक्ति 64 कलाओं का पारगामी (महाविद्वान) M व कामदेव समान अत्यन्त रूपवान भी क्यों न हो, उसको भी वे तिरस्कृत कर ठुकरा देती हैं । और धनवान काना.. 439
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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