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नीति वाक्यामृतम्
अपितु धन से प्रीति करती हैं । अत: शत्रुपक्ष बलवान हुआ- अधिक धनाशा से स्वामी राजा के भेद खोलकर उसे परास्त करा देगी या मार डालेगी। अतएव राजाओं को साम, दाम, दण्ड, भेद नीतिओं द्वारा विजयलाभ करना चाहिए न कि वेश्याओं द्वारा । 129॥ भूपतियों का कर्तव्य है कि वह उन भोगपत्नियों-वेश्याओं का संग्रह करे जिनकी जातिमातृपक्ष विशुद्ध (व्यभिचाररहित) हो व राजद्वार पर निवास करने वाली हों । इनका समूह भी प्रयोजन होने पर करना चाहिए । विजयेच्छुओं को शत्रु का असली भेद पाने के लिए उनका सञ्चय करना उचित है । अनावश्यक नहीं करना चाहिए ।।30 ॥ भुजंग की बारी में प्रविष्ट हुए मेंढक का जीवन जिस प्रकार समास हो जाता है, उसी प्रकार जो राजा स्त्रियो के घरों में प्रवेश करते हैं वे भी अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं - मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। क्योंकि ये (वेश्याएँ) दुष्ट चञ्चल स्वभावी होती है, लुब्धक भी होती हैं। शत्रु पक्ष में मिलकर उसे मार डाल हैं । अथवा उपायान्तरों से मरवा डालती हैं 181 || गौतम विद्वान ने भी कहा है :
प्रविष्टो हि यथा भेको बिलं सर्पस्य मृत्युभाक् । तथा संजायते राजा प्रविष्टो वेश्मनि स्त्रियः ।
अर्थ उपर्युक्त ही है ।
राजा को अपने जीवन रक्षा के लिए सदैव सावधान रहना चाहिए । वह सतर्क रहे । उपर्युक्त (वेश्याओं) स्त्रियों के यहां से आये हुए भोजन को नहीं करे (खावे) । तथा उनको अपने भोजनगृह में भोजन बनाने को भी नियुक्त न करें। कारण ये विश्वास पात्र नहीं होती । इनकी चञ्चलता खतरे से खाली नहीं होती । कभी भी अनर्थ . कर सकती हैं | 132 || वादरायण ने भी यही कहा है :
स्त्रीणां गृहात् समायातं भक्षणीयं न भूभुजा । किंचित् स्वल्पमपि प्राणान् रक्षितुं योऽभिवाञ्छति ।।1।।
उपर्युक्त ही अर्थ है ।
राजा स्वयं भक्षण करने योग्य भोजनादि कार्यों में उपर्युक्त प्रकार की (वेश्यादि) स्त्रियों को नियुक्त न करें। क्योंकि वे चञ्चल होती हैं, कोई भी अनर्थ कर सकती हैं ।।33 || भृगु विद्वान भी कहते हैं :
भोजनादिषु सर्वेषु नात्मीयेषु नियोजयेत् ।
स्त्रियो भूमिपतिः क्वापि मारयन्ति यतश्च ताः 1 स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों के अमर्थ, उनका इतिहास व माहात्म्य :
संवमनं स्वातंत्र्यं चाभिलषन्त्यः स्त्रियः किं नाम न कुर्वन्ति ।।34॥ श्रूयते हि किल आत्मनः स्वच्छ-न्दवृत्तिमिच्छन्ती विषविदूषितगण्डूषेण मणिकुण्डला महादेवी यवनेषु निजतनुज राज्यार्थं जघान राजानमङ्गराजम् ॥35॥ विषालक्तकदिग्धेनाधरेणवसन्मतिः शूरसेनेषुसुरतविलासं, विषोपलिन मेखलामणिनावृकोदरी दशार्णेषु मदनार्णवं, निशितनेमिना मुकुरेण मदराक्षी मगधेषु मन्मथविनोदं, कवरीनिगूढनासिपत्रेण चन्द्ररसा पाण्ड्येषु पुण्डरीकमिति ।।36॥ अमृतरसवाप्य इव श्रीजसुखोपकरणं स्त्रियः ।।37॥ कस्तासांकार्याकार्य विलोकनेऽधिकारः 1138॥
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