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________________ नीति वाक्यामृतम् पतिव्रता - शीलवती नारियों को पशुजाति के पुरुष से भी सावधान- दूर रहना चाहिए । मनुष्य जातीय पुरुष की तो बात ही क्या है ? उससे तो दूर रहना ही चाहिए ॥ 26 ॥ स्त्रियों की रक्षा वंश की विशुद्धि के लिए और अनर्थ का परिहार करने के लिए करना चाहिए । भोगों के लिए नहीं । विषय-वासना का परिहार करने के लिए रक्षित-पालित नहीं की जाती हैं। अपितु नीतिज्ञ सदाचारी वंशवृद्धि और अनर्थ परिहार के लिए विवाहादि कर रक्षण करना चाहिए 1127 || गुरु विद्वान ने भी कहा है :वंशस्य च विशुद्धयर्थं तथानर्थक्षयाय च रक्षितव्याः स्त्रियो विज्ञैर्न भोगाय च केवलम् ॥ मात्र भोगों के लिए नहीं, वंश शुद्धि व कदाचार परिहार के लिए नारियाँ होती हैं । 1 ॥ वेश्या सेवन त्याग, स्त्रियों के निवास में प्रवेश निषेध, तथा राज कर्तव्य : भोजनवत्सर्वसमानाः पण्याङ्गनाः कस्तासु हर्षामर्षयोरवसरः । 128 ॥ यथाकामं कामिनीनां संग्रहः परमनीर्ष्यावानकल्याणावहः प्रक्रमोऽदौवारिके द्वारि को नाम व प्रविशति ॥ 29 ॥ मातृव्यञ्जन विशुद्धा राजवसत्युपरिस्थायिन्यः स्त्रियः संभवतव्याः 1130 ॥ दर्दुरस्य सर्पगृहप्रवेश इव स्त्री प्रवेशो राज्ञः ॥31॥ न हि स्त्री गृहादायात किंचित्स्वमनुभवनीयम् ॥32॥ नापि स्वयमनुभवनीयेषु स्त्रियो नियोक्तव्याः ॥133 ॥ अन्वयार्थ :- ( (पण्याङ्गनाः) वेश्याएँ (भोजनवत्) बाजार के भोजन समान (सर्वसमाना:) सर्व साधारण होती हैं (तासु) उनमें (क) कौन पुरुष ( हर्षामर्षयोः) हर्ष विषाद का ( अवसर : ) समय प्राप्त करेगा ? | 128 1 ( यथाकामम्) यथावसर (कामिनीनाम् ) स्त्रियों वेश्याओं का (संग्रह) संग्रह करता है (परम ) परन्तु (अनीर्ष्यावान् ) निरर्थक (कल्याणावहः) अकल्याणकारी (प्रक्रमः) कार्य है (अदौवारिके) द्वारपाल रहित (व्यञ्जन) परम्परा (विशुद्धा) शुद्ध ( राजवसति) राजद्वार में निवासिनी (उपरिस्थायिन्यः) स्थित रहने वाली (स्त्रियः) वेश्याओं के घर में प्रवेश (दर्दुरस्य) मेंढक का ( सर्पगृहप्रवेश:) सांप की वामी में प्रवेश (इव) समान [ अस्ति ] है 1131 ॥ (हि) निश्चय से (स्त्री) रानियों के (गृहात् ) घर से (आयातम् ) आई हुई ( किंचित्) कुछ भी (स्वयम् ) स्वयम (न) नहीं ( अनुभवनीयम् ) भोगे । 132 1 (स्वयम् ) अपने (अनुभवनीयेषु) भोगनेयोग्य भोजनादि में (स्त्रियः) स्त्रियों को (न) नहीं (अपि) भी (नियोक्तव्याः) नियुक्त नहीं करना चाहिए | 133 ॥ विशेषार्थ :- संसार में वेश्याओं को बाजारु कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि बाजार के भोजन के समान सर्वसाधारण होती हैं । अतः कौन नीतिज्ञ, सदाचारी पुरुष उन्हें देखकर प्रसन्न होगा ? कोई नहीं | 128 ॥ अर्थात् वेश्याओं के विषय में शीलवान सत्पुरुष हर्ष-विषादादि नहीं करते । उनमें उपेक्षा भाव रखते हैं | 128 || शत्रु पर विजय चाहने वाले राजा को स्वार्थ सिद्धि के लिए अर्थात् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए वेश्याओं का संग्रह करना चाहिए । परन्तु यह कथन व्यर्थ और अकल्याण कारक है । क्योंकि जिस प्रकार द्वार पर दरबान नहीं होता उस द्वार में चाहे जो प्रविष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार सर्वसाधारण द्वारा भोगी जाने वाली वेश्याओं के घर में भी हर एक पुरुष प्रवेश करते हैं । उसका किसी एक के प्रति प्रेम नहीं होता । वस्तुतः वे पुरुष से नहीं 434
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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