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________________ नीति वाक्यामृतम् अन्वयार्थ :- (दान) इच्छितवस्त्राभूषण (दर्शनाभ्याम्) सम-प्रेमदृष्टि (समवृत्तौः) निष्पक्ष व्यवहार (हि) निश्चय से (पुंसि) पुरुष में (स्त्रियः) स्त्री (न) नहीं (अपराध्यन्ते) अपराध नहीं करतीं ॥6॥ (परिगृहीतासु) पाणिग्रहण की (स्त्रीषु: वि में (प्रियम्) प्रेम (अप्रियम्) द्वेष (न) नहीं (मन्येत) माने ।।17 ॥ (कारणवशात्) निमित्त वश से (निबोsf५, कटु नीम भी (अनुभूयते) सेवन करता (एव) ही है In8 ॥ (चतुर्थदिवसे) चतुर्थ दिन में (नाता) स्नान की हुयी (स्त्री) नारी (तीर्थम्) पवित्र भोग्ययोग्य है (तीर्थोपराधो) पवित्र नारी का सेवन न करना (महान्) अत्यन्त (अधर्म:) पाप का (अनुबन्धः) कारण है ।19॥ (ऋतौ) रजस्वलाकाल में (अपि) भी (स्त्रियम्) स्त्री की (उपेक्षमाणः) उपेक्षक (पितृणाम) वंश की परम्परा का (ऋणभाजनम्) ऋणि [अस्ति] है ।120 ॥ (स्त्रीणाम) स्त्रियों की (अकर्तव्ये) अमर्यादिकार्यों में (मर्यादा) सीमा (न अस्ति) नहीं है (ऊढा) विवाहिता की (उपेक्षणम) उपेक्षा (न) नहीं करना, अपितु (अविवाहः) विवाह न करना ही (वरम्) श्रेष्ठ है ।।22॥ (अकृतरक्षस्य) रक्षा न करने (कलत्रेण) स्त्री से (किम्) क्या प्रयोजन ? (अकृषतः) बिना जोते (क्षेत्रेण) खेत से (किम) क्या प्रयोजन ? | 23॥ विशेषार्थ :- जो पुरुष धर्मानुकूल विवाह कर अपनी पत्नी को वस्त्राभूषण प्रदान करता है व प्रेम पूर्ण दृष्टि से व्यवहार करता है उससे स्त्री भी वैर विरोध नहीं करती । अभिप्राय यह है कि स्त्रियों को वश करने का उपाय पति द्वारा दान सम्मान व प्रेम प्रदान करना है ।।16 ।। नारद विद्वान ने भी कहा है : दानदर्शन संभोगं समं स्त्रीषु करोति यः । प्रसादेन विशेषं च न विरुध्यंति तस्य ताः ॥1॥ अर्थ :- जो पुरुष अपनी विवाहिता स्त्रियों में समान रूप से दान (वस्त्राभूषण प्रदान) दर्शन (स्नेह दृष्टि) संभोग (रतिक्रीडा) करता है । उसके विरोध में स्त्रियाँ कभी नहीं जाती । अर्थात् वे पति के अनुकूल ही आचरण करती हैं ॥16॥ अपनी विवाहित स्त्रियों में से सुन्दर-रूपवानों से प्रेम और कुरूपों से द्वेष-ईर्ष्या नहीं करना चाहिए । सबके साथ एक समान व्यवहार करे । अन्यथा कुरूपा स्त्रियाँ विरोध में होकर उसका अनिष्ट चिन्तन करेंगी ।।17 | भागुरि विद्वान ने भी कहा है : समत्वेनैव दृष्टव्या याः स्त्रियोऽत्र विवाहिताः । विशेषो नैव कर्तव्यो नरेण श्रियमिच्छता ।।1॥ रोगादि के होने पर कटु नीम का भी औषधि रूप में सेवन किया जाता है उसी प्रकार अपनी रक्षा व वंशवृद्धि आदि की अपेक्षा के कुरूप नारी का भी सेवन किया जाता है ।18 | भारद्वाज विद्वान ने भी कहा है : दुर्भगापि विरूपापि सेव्या कान्तेन कामिनी । यथौषधकृते निम्बः कटु कोऽपि प्रदीयते ॥1॥ अर्थ वही है। 431
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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